बड़े शहर तो हैं तो बस नाम के,
मैं जबलपुर से बस का छह घंटों का सफर तय कर रात आठ बजे नागपुर एयरपोर्ट पहुंचा, और वहां से दस बजे की फ्लाइट पकड़ कर अभी अभी बैंगलोर पहुंचा हूं।”
रात के बारह बजे बंगलौर एयरपोर्ट से मैंने परितोष को फोन किया,
“तुम मुझे लेने नहीं आए ?”
“पापा आप फलाने नंबर वाली बस पकड़ कर फलाने स्टॉप तक आ जाना। मैं वहां से आपको पिक कर लूंगा।”
मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया। मैं पिछले बारह घंटों से सफर कर रहा हूं। कम से कम वह एयरपोर्ट तक जाता तो मुझे थोड़ी खुशी मिलती।
खैर हो सकता है वह बिजी हो। कोई बात नहीं। मैंने उसकी बताई हुए बस पकड़ी और कंडक्टर के सामने टिकिट के लिए सौ रुपए बढ़ा दिए। उसने यह देख कर पहले कन्नड में कुछ कहा फिर हिन्दी में कहा,
“ सिर्फ इतना ? और दो..”
“और कितना ?” यार इतने रुपए में तो हम अपने शहर से दूसरे शहर पहुंच जाते हैं।’ मैंने मन ही मन सोचा।
“दो सौ पचास और।”
“अरे मुझे बंगलौर सिटी जाना है दूसरे शहर नहीं।”
“बस उतना ही लगेगा।” उसने मेरे बात को तवज्जो नहीं देते हुए कहा।
मैंने उसे दो सौ पचास और दिए।
तकरीबन एक बजे ड्राइवर ने बस स्टार्ट की और ढाई घंटों बाद वह परितोष के बताए स्टॉप तक पहुंचा।
मैं बस से उतरा परितोष को देख कर मैंने उसे एयरपोर्ट न आने के लिए अपनी खुशी जाहिर की
“अच्छा हुआ तुम नहीं आए मुझे नहीं मालूम था यह ढाई घंटों का सफर होगा।”
वह मुस्कुराया,
“अभी सफर खत्म कहां हुआ है।”
“क्या मतलब ?” मैंने पूछा।
"आप चलिये तो सही, कार में बैठिए।"
उसने सामान कार में रखा। अब हमें उसके फ्लैट तक का सफर तय करना था।
उसने कार स्टार्ट की। हम पौन घंटे चलते रहे। रात के तीन बज रहे थे। हमारे शहर में तो अब तक शहर खत्म हो कर घने जंगल या फिर खेत लग जाते हैं, या फिर कोई दूसरा शहर ही आ जाता है। यहां ये कंक्रीट के जंगल तो खत्म होने का नाम नहीं ले रहें हैं।
आखिरकार साढ़े तीन बजे उसका फ्लैट आ गया। मैंने सुकून की श्वास ली। अंततः मेरी यात्रा संपन्न हुई। उस दिन मैंने जाना सिर्फ इन महानगरों में पहुंच कर ही नहीं, दरअसल एक पूरी यात्रा स्टेशन या एयरपोर्ट से घर तक की भी बाकी होती है। जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी ना ही उसमें लगाने वाला टाइम ही काउंट किया था…खैर…
मुंबई ...
मैंने बीस वर्ष पहले मुंबई के जीवन के बारे में पढ़ा था। वहां बच्चें अपने पापा को सिर्फ रविवार को ही देख पाते हैं। उनके पापा देर रात घर लौटते हैं तब तक बच्चें सो चुके होते हैं और फिर उनके जागने के पहले ही सुबह ही उनके पापा को फिर ऑफिस के लिए निकलना होता है। मेरे एक रिश्तेदार ने यह भी बताया कि मुंबई की लोकल में ऑफिस से लौटने वाली महिलाएं एक डेढ़ घंटों के सफर में सब्जियां काट कर रात के खाने की तैयारी कर लेती हैं। भारत के पांच महानगरों में रहने वाले पाठकों को यह सब सामान्य लग रहा होगा किंतु छोटे शहरों में रहने वालों के लिए यह बड़ा अजीब है।
मैं सोचता हूं,यह तो बीस वर्ष पहले की बात है तो आज क्या हाल होगा और भविष्य में यानी बीस तीस साल बाद स्थिति कितना भयानक रूप ले सकती है।
इन पांच वृहत शहरों में रहने के लिए आपको अपने आपको कई तरह से तैयार करना पड़ता है। सबसे पहली और थका देने वाली चीज़ से आपका सामना होता है वह है ट्रेन की अठारह, चौबीस या फिर छत्तीस घंटों के सफर, फिर रेलवे स्टेशन से अपने गतव्य तक की दूरी तय करने में लगने वाला सफर जो दो, तीन या फिर यदि आप फ्लाइट से भी आए तो शहर से सुदूर स्थित एयरपोर्ट से चार घंटों तक भी हो सकता है। दूसरी शुरुआत होती है खान पान की विभिन्नता से। हमारे एक मित्र का पुत्र सिर्फ इस बात से बंगलौर से वापस आ गया कि उसे वहां का खान पान रास नहीं आया। यह आसान तो बिलकुल नहीं है।
भीड़ और केवल भीड़ । एक आम नागरिक अपने जीवन के 4 महत्वपूर्ण वर्ष सिर्फ शहर में घर और ऑफिस के बीच की दूरियां तय करने में बिता देता है। और इस दौरान वह कोई अन्य कार्य नहीं कर पाता।
बैंगलोर शहर में जो कुछ अच्छा था, वह सत्तर अस्सी के दशकों तक समाप्त हो चुका। तब बड़े अरमानों से बसाया यह शहर बेहद खूबसूरत हुआ करता था। मनभावन बगीचों और वृक्षों से जनित हरियाली इसे एक बेहद खुशगवार और रहने लायक स्थान बनाती थी। उस वक्त ट्रैफिक कम था और एक वाजिब समय बड़ी आसानी से शहर की खूबसुरती देखते हुए बीत जाता था। मैं यह सब इसलिए लिख पा रहा हूं क्योंकि मैंने बंगलौर को चालीस वर्षों के अंतराल में (1982 - 2022) देखा और महसूस किया। तो आप भी वो अंतर स्पष्ट महसूस कर सकते हैं । यकीनन लिट्रेसी के मामले में यह नम्बर वन है। यहां के ऑटो या टैक्सी वाले भी धाराप्रवाह इंग्लिश बोल लेते हैं। नि: संदेह अन्य शहरों की तरह बैंगलोर का इतिहास भी भव्य है किन्तु वर्तमान में अनियंत्रित होता यह शहर वह भव्यता लीलता जा रहा है और पीछे छोड़ता रहा है एक हाउच पाऊच ट्रैफिक और प्रदूषण। यही हालात अमूमन सभी बड़े शहरों की हैं।
हर चीज़ के विकसित होने का एक तरीका है, तभी तक वह खूबसूरत है, लेकिन मानव निर्मित यह शहर तो जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। बस बेहिसाब बढ़ता ही जा रहा है, वह भी बेतरतीबी से। हुकूमत के पास शायद इसके विस्तार को एक सही दिशा देने का न तो वक्त है और न ही कोई कारगर प्लान। अनियंत्रित होता जा रहा शहर मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ चुका है। जैसे अब इसे रोक पाना किसी के बस में नहीं।
सुबह के पांच बजे थे। मैं आदतन उठ चुका था। परितोष को सी ऑफ करने के लिए। उसकी कैब उसे लेने बस आती ही होगी।
‘पापा, नौ बजे पानी वाला आए तो प्लास्टिक की टंकी अंदर रखवा लेना।’
"यार ये दूध वाला, पेपर वाला, सब्जी वाला और नए जमाने में कोरियर वाला भी सुना है, लेकिन ये ‘पानी वाला’ क्या है क्या तुम पानी भी खरीदते हो ?"
"हां! क्योंकि जो पानी नलों में आता है वह पीने लायक नहीं होता।"
" तब तो हो चुकी बचत। जिस शहर में पानी भी खरीद कर पीना पड़े वहां..., ओह...अब समझ में आया तुम लोग जो इतना पैसा कमाते हो जाता कहां है ?"
"अभी आपने देखा ही क्या है?"
"अब क्या देखना बाकी है?"
"बहुत कुछ।"
बेतरतीबी से बढ़ रहे हज़ार परेशानियों से भरे इस शहर में अब पीने के पानी की समस्या हो चली है। क्योंकि कावेरी नदी सूख चुकी है या सूखने की कगार पर है।
और तभी उसकी कैब वाले का फोन आया। जो उसे लेने नीचे खड़ा था।
"अच्छा तुम्हें ऑफिस पहुंचने में कितना वक्त लगेगा ?"
"पैतालीस मिनिट, सुबह पांच बजे ट्रैफिक कम होता है इसलिए।"
"और लौटने में ? अब यह भी बता दो।"
"डेढ़ घंटा।"
"क्यूंकि शाम चार बजे तक ट्रैफिक बढ़ जाता है।" मैंने कहा।
"बिल्कुल ठीक। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
उसके जाने के बाद मैं टेरेस पर टहलने लगा तो नीचे देखा अपने अपने घरों के गेट के आगे स्त्रियां फर्श को पानी से धो रही हैं । इसके पश्चात उन्होंने एक सुंदर रंगोली बनाई, फिर रंगोली के बीचो बीच एक फूल और एक जलता दिया रख दिया। इसके पश्चात दरवाजे की चौखट के दोनों तरफ दो दो फूल रख दिए। मैंने देखा यह उनके रोज का नियम है। दक्षिण भारतीय अधिक श्रद्धालु एवं संस्कृति से जुड़े होते हैं। इस तरह ये महिलाएं प्रतिदिन सुबह सुबह अपने सौभाग्य को जगाने का उपक्रम करती हैं। अब लगता है उनकी आस्था समस्याओं पर भारी पड़ जाएंगी। आभास होता है उनकी यही आस्था उन्हें जिंदगी से लड़ने की हिम्मत भी देती हैं और अपनी संस्कृति को बचाए रखने में भी।
तभी कॉल बेल बजी। दरवाजे पर कोई है। देखा तो पानी वाला बीस लीटर की टंकी कंधे पर उठा कर सीढ़ियों से चार मंजिल का सफर तय करता हुआ चला आ रहा है।
"बस बस यहीं रख दो। मैं इसे अंदर ले जाऊंगा।"
"नही नहीं अंदर अंदर...मैं....रखता..."
उसने टूटी फूटी हिंदी में कहा। वह बीस बाइस साल का लड़का था।
"अच्छा ठीक है।"
और वह दरवाजे से होता हुआ किचन प्लेटफार्म तक चला गया। उसे मालूम था टंकी कहां रखनी है।
पानी की बात चली तो एक सर्वसुविधायुक्त आधुनिक जमाने के अपार्टमेंट में पानी की व्यवस्था ने मुझे आश्चर्य चकित कर दिया।
फ्लैट दिखाने वाले सेल्स पर्सन ने बताया।
अपार्टमेंट के सभी बाथरूम में शावर के लिए कनेक्शन दिए गए हैं, जिसे पीने के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता। पीने के पानी के लिए एक एक प्वाइंट किचन में दिए गए हैं।
बाथरूम में शावर लेने के बाद या बेसिन का पानी उपयोग के बाद नाली में बहाया नहीं जाता, बल्कि उसे बेसमेंट के नीचे एक भूमिगत टैंक में इकट्ठा कर लिया जाता है। इसके बाद इस पानी से साबुन, बाल या अन्य कचरा वैगरह निकाल कर इसे साफ किया जाता है तत्पश्चात इस पानी को लेट्रिन के फ्लश के लिए उपयोग किया जाता है। इसके बाद ही यह पानी नालों में बहा दिया जाता है।
धुएं के आवरण में ढकी सहमी देहली...
ठीक इस समय यदि आप हवाई जहाज़ से दिल्ली एयर पोर्ट पर लैंड कर रहें हो तो आपको दिल्ली शहर कहीं नज़र नहीं आता। नज़र आते हैं तो बस काले धुएं से भरे बादल। आपको याद होगा कैसे दिल्लीवासियों का इस पॉल्यूशन में श्वास लेना दुभर हो गया और सड़को पर कारों को ‘ओड इवन‘ व्यवस्था द्वारा नियंत्रित करने का असफल प्रयास किया गया।
मगर आपके लिए ये एक मन को तसल्ली देने के लिए एक तथ्य और है वह यह की हमारे एक अंकल ने बताया ठीक यही दृश्य जापान के टोकियो में लैंड करते वक्त होता है जहां आकाश से शहर काले प्रदूषित काले बादलों से ढका नजर आता है।
मतलब विकास किया तो कीमत तो चुकानी पड़ेगी।
इंदौर....
इसे पढ़ते हुए यदि आपके जेहन में इंदौर का चेहरा घूम जाता हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। वो पुराने इंदौरी यदि अपनी यादों को खंगाले तो जिस इंदौर का दृश्य स्मृति पटल पर उभर कर आता है उसकी अपनी शांत और सुकून भरी प्रकृति थी। सड़कों पर तांगे चला करते थे खान पान से ले कर कपड़ों की दुकानों पर मान मनुहार और मिलनसार स्वभाव से जनी परंपरागत संस्कृति का अभिमान इंदौरियों को अपना शहर विस्मृत होने नही देता था। हजार पंद्रह सौ दर्शकों से खचाखच भरे थियेटर में फ़िल्में देखना एक उत्सव हुआ करता था और रोज रात सड़के पानी से धुला करती थीं। सौभाग्य से स्वच्छता सुंदरता की वही परंपरा आज भी कायम है लेकिन कब तक कायम रहेगी ? कुछ जतन नहीं किए गए तो यह शहर रहने लायक नहीं बचेगा। ठीक वैसे जैसे अस्सी नब्बे के दशक मुंबई रहने लायक नहीं बचा और त्रस्त मुंबईवासी शांति की तलाश में इंदौर की और रुख करने लगे। अब सुनते हैं लोग इंदौर से सटे पास के छोटे छोटे शहरों महू आदि की और अपना आशियाना बसाने की जुगत में लगे हैं।
आपको याद होगा सत्तर के दशक में यदि आप सर्वटे बस स्टैंड से देवास के लिए निकलें तो पटवा अभिकरण पर इंदौर खत्म हो जाया करता था। वहां से आपकी बस स्पीड पकड़ लेती थी। बाद में अस्सी के दशक में शहर का विस्तार विजय नगर तक हो चुका था और अब यह हाल है कि शहर खत्म ही नहीं होता और आप देवास पहुंच जाते हैं।
अब वह समय आ चुका जब इसे पांच महानगरों की श्रेणी में आने से रोका जाए। आसमान छूती प्रॉपर्टी की कीमतें जीवन में रंग तो भर सकती हैं लेकिन आत्मा का आनंद निचोड़ लेती है।
ज़ाबालीपुरम...
(जाबली ऋषि की तपस्थली)
अब मैं यदि अपने शहर जबलपुर की बात करूं तो शहर के वे युवा व्यवसाई जो कहीं न कहीं देहली या मुबई जैसे महानगरों से जुड़े हैं, के द्वारा शहर की धीमी गति से विकास करने को बहुत कोसा गया। इसे “बड़ा गांव”, या एक मुर्दा शहर और जाने क्या नहीं कहा गया। यहां बसना यानी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना आदि आदि तरह के तंज कसे गए। लेकिन महानगरों की आज की कुव्यवस्था देख अब वे हो लोग इसे शांत, सुकून और व्यवस्थित शहर बताने लगे हैं। पांच वृहत टाइगर रिजर्व से घिरा यह शहर अब प्रमुख पर्यटन केंद्र के रूप में जाना जाने लगा है।
मैं शुक्र मनाता हूं यह बड़े शहरों जैसी आपाधापी वाला शहर बनने से फिलहाल तो बच गया लेकिन सवाल यहां भी वही है, आखिर कब तक बचा रहेगा ?
डर है, पैसे कमाने की भूख इसका भी कहीं वहीं हाल न कर दे जो तथाकतिथ बड़े शहरों का किया जा चुका है, जहां रहना नागरिकों की मजबूरी या कहिए आदत बन चुकी है।
आखिर समाधान क्या है ?
समाधान बस नेक और साफ नीयत से संभव है। जब देश के सारे रेलवे प्लेटफार्म साफ चमकते हुए हो सकते हैं, जब इंदौर स्वच्छता अभियान में प्रथम ए सकता है, तब इस देश के लिए मुश्किल तो कुछ नहीं हैं। अब समय आ चुका है शहरों की परिधि तय कर नई उनका आकार तय कर नई कॉलोनियों के निर्माण पर रोक लगाई जाए और उन जगहों पर वृक्षारोपण कर शहर को एक नई ऊर्जा और रौनक से भर दिया जाए। चुकी बगीचे बढ़ते प्रदूषण को रोक पाने में सर्वथा नाकाम हैं, अतः शहर में जगह जगह स्थित बड़े बगीचों को जंगलों में तब्दील किया जाए जो भांति भांति के परिंदों से गुलजार हो, जिससे पर्यावरण संतुलित हो सके।
शहर के बाहरी भाग की परिधि तय कर उसे जंगल से घेर दिया जाए। ठीक वैसे ही जैसे एक सुनहरी बॉर्डर एक पेंटिंग की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है। यहां सायकलिंग ट्रेक एवम पक्षियों से समृद्ध अभ्यारण्य बनाए जाए। जिससे खासकर बच्चे प्रकृति से जुड़ सकें।
इसके पश्चात शहर के चारों ओर कम से कम बीस तीस किलोमीटर की परिधि की जमीन सिर्फ खेती के लिए छोड़ कर नए आत्म निर्भर शहर बसाए जाए। जिनका अपना एयरपोर्ट मेट्रो, मॉल आदि हो।
यदि ऐसा नहीं किया गया तो शहर सिर्फ वातानुकूलित कारों गगनचुंबी इमारतों से बना कंक्रीट का जंगल बन कर रह जाएगा जहां लोग देहली की तर्ज पर भयंकर वायुप्रदूषण और बेलगाम ट्रैफिक के शिकार हो कर रह जाएंगे।
और अंत में स्ट्रीट डॉग्स,
बंगलौर का सदगुंटू पलाया शहर के केंद्र स्थान में एक शांत पुरानी बसाहट है। सदगुंटू पलाया के गणपति मंदिर में दर्शन लाभ ले कर मैंने मंदिर से सटे मार्केट में सांभर बड़ा और उपमा का नाश्ता किया। जब में फ्लैट पर लौटा तभी मैंने देखा एक देसी कुत्ता (street dog) मेरे पीछे पीछे चौथी मंजिल तक आ चुका है। वह बड़ा फ्रेंडली था, जैसे मुझे जानता हो। उसके पीछे पीछे चार और कुत्ते आ गए सब हट्टे कट्टे, जैसे पाले गए हो। सामान्यतः ये मरे गिले होते है लोगों द्वारा दुत्कारे हुए, उनका स्वाभिमान मर चुका होता है और वे अपनी ज़िंदगी को कोस रहे होते हैं। मैंने उन्हें खाने को कुछ बिस्किट्स दिए जिन्हें खा कर वे कुछ देर बैठे रहे फिर चले गए।
मैं सोच रहा था, बड़े शहरों में पल पल में उड़ान भरते हवाई जहाज़, फर्राटे भरती महंगी गाड़ियां, आसमान छूती इमारतें और दुकानों में सजी महंगी वस्तुए बार बार हमें इस कतार का अंतिम आम आदमी महसूस कराती है। हम भूल ही जाते हैं हमसे भी बेबस और भूखे ये जानवर है जिन्हें जीने का समान अधिकार है। इसके आगे आप जाए तो हमारे ही देश में कुछ लोग तकरीबन पशु के सदृष्य जीवन बिताने पर मजबूर हैं।
ये कुत्ते शायद इंसानों को याद दिलाते हैं, तुम्हारी सोच गलत है। तुम्हारी सोच तुम्हारी लालच और इच्छाओं और हवस से प्रेरित है। तुम अंतिम क्रम के आम बेबस इंसान नहीं हो, तुम बहुत बेहतर हो और इसके लिए अपने ईश्वर का आभार मानो, उसका अभिनंदन करो और उसे धन्यवाद दो...
जानवर या पेड़ पौधे से प्रेम और उनके साथ तारतम्य स्थापित करने की जद्दोजहद इंसान को मशीन बनने से रोकने में मदद करती है। यह आपके भीतर की इंसानियत को मरने से बचाता है।
जिम्मेदारियों के बोझ तले सपनों को मरने मत देना।
इस मशीनी दुनियां में अहसास खत्म होने मत देना।लौट के बुद्धू घर को आए...
अपने शहर जबलपुर में लौटने के बाद मैं वही राहत महसूस कर रहा था जैसे भीड़ में फंसने और उससे निकलने के पश्चात कोई महसूस करता है। जैसे एक बोझ सीने से हट गया हो। हो सकता है इसकी वजह मेरी इस शहर में रहने की आदत हो। स्टेशन से घर लौटने में मुझे कुल पंद्रह से बीस मिनट लगे।
कुछ वर्ष पूर्व जबलपुर हवाई अड्डे पर पारितोष को बैंगलोर के लिए रुखसत करते हुए मैं बहुत खुश था। चलो कम से कम उसे तो इस मुर्दा शहर से निजात मिली। किंतु आज बंगलौर शहर क़ो करीब से देख कर मैं ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा था, बंगलौर उसकी और उसके जैसे और भी मेहनती बच्चों की जीवन यात्रा का महज़ एक पड़ाव भर हो। आगे उन्हें ऐसा कोई शहर मिले जहां लोग जीवन जीते हो, जीने के लिए मशक्कत न करते हो। जहां फिज़ाओं में जहर न घुला हो। जहां परिंदे प्रदूषण में बेदम न होते हो और जहां बच्चें अपने पिताओं से मिलने अपने ही घर में हफ्ते भर का इंतजार न करते हो...
क्रमश...
ईश्वर में आस्था रखे,
आनंद से रहें, और पढ़ते रहें...यह अच्छा है...
आपका धन्यवाद...
🙏🏻🙏🏻✍️✍️🙏🏻🙏🏻