राजस्थान विंटर ट्रेकिंग एक्सपीडिशन
जैसलमेर.
यूथ हॉस्टल असोसिएशन ऑफ़ इंडिया के साथ
[ कुल शब्द - 5116 ]
28 दिसंबर की सुबह 11 -50.जयपुर
Right click block अपने गृह स्थान से 895 किलोमीटर की रेल यात्रा कर मैं जिस स्टेशन पर पहुँचता हूँ, उस स्टेशन पर लगे नाम पट्ट पर जयपुर लिखा है. कोई जल्दी नहीं है, मुझे आज शाम पांच की बस पकड़ कर जैसलमेर जाना है, मेरे पास सामान भी कुछ ख़ास नहीं है. बस एक रक्सक है, अगले सात आठ दिन तक जिसे मुझे उठा कर चलना है. पहाड़ो की बनिस्बत यह ट्रेक आसान है, पहाड़ो पर थोड़ा भी सामान ज़्यादा हो जाता है तो मुश्किल हो जाती है. मैं कुछ ज़्यादा सामान भी रख सकता था मगर ज़्यादा या कम क्या होता है ? जितना ज़रूरी हो उतना ही काफी है. तो अब मुझे यहीं उतरना है.
जयपुर राजधानी है राजस्थान की. प्राचीन विरासत और आधुनिकता का संगम है यह शहर, यहाँ घूमने के लिए बहोत कुछ है, मगर मैं कुछ घंटे अंकल एवं आंटी के साथ बिताना चाहता हूँ, जो यहीं रहते हैं, जिनसे मैं कई वर्षो से नहीं मिला हूँ. मैंने उनसे फोन पर कहा कि, मैं आपका पता ढूंढ लूँगा. मगर वो यह निवेदन नहीं मानते और स्टेशन तक पहुंचते हैं.
तो इस तरह मेरे लिए आज दिन भर का दिन है, फिर से पुरानी स्मृतियों में कुछ देर भ्रमण करने के लिए. कुछ रिश्ते काल खंड में नहीं मापे जा सकते ये पता नहीं कहाँ से आरम्भ होते हैं और कहाँ ख़त्म होते हैं, शायद ख़त्म ही नहीं होते, जीवन पर्यन्त चलते ही रहते हैं.
बातों का सिलसिला मेरे आने के बाद से लगातार चलता जा रहा है. मेरे कारण आज वो दोपहर की झपकी भी नहीं ले पाए हैं. उनका स्नेह साफ़ साफ़ दृष्टिगोचर होता है. उनसे वार्तालाप के दौरान मैं महसूस करता हूँ, वो चाची जी के साथ काल के उसी खंड में पहुंच चुके हैं, जहाँ उन्होंने ज़िन्दगी के अपने बेहतरीन दिन गुज़ारे थे . वैसे वो अभी भी सुकून से हैं...
शाम के चार बजना चाहते हैं , मैं उनके साथ उनके खूबसूरत लॉन में बैठा हूँ, कैसे इस उम्र में भी वो इसे हरा भरा रखते है ? उन्हें चाची जी के साथ, सुकून के साथ बैठ चाय की चुस्किया लेते हुए देखता हूँ, तो कुछ लाइने मन में उपजने लगती हैं...
बस चालक आखिरी बार हॉर्न देता है. यह बस मुझे कल सुबह दस बजे जैसलमेर पंहुचा देगी. ट्रेकर कल दिन भर कभी भी रिपोर्टिंग कर सकते हैं. यह स्लीपर कोच है, ज्यादा आरामदायक तो नहीं है मगर मैं एक ट्रेकर हूँ, परिवार के साथ लक्ज़री हॉलिडे मनाने नहीं निकला हूँ. तो कंडक्टर मुझे मेरी जगह बता देता है, यह एक छह बाय दो फ़ीट आकार का स्लीपिंग बॉक्स है. जी हां बिल्कुल कोकून की तरह है. भीतर जाने के लिए एक छोटी सी जगह, मैं किसी तरह प्रवेश करता हूँ. स्लाइड होने वाला दरवाजा बंद कर लेता हूँ, मगर खिड़की के कांच खुले हैं, इससे ताज़ा हवा भीतर आने लगती है...
थोड़ी ही देर में बस जयपुर शहर की भीड़ भाड़ से बाहर आ जाती है. मैं खिड़की से बाहर देखता हूँ, बाहर न जंगल है, न पहाड़, न कल-कल बहती नदिया है, ऐसा कुछ भी नहीं है , जो मन को मोह ले. कुछ है तो बस मीलो फैला प्यासा रेगिस्तान और उगी हुई बुशेस यानी झाड़ियाँ. मगर फिर भी ये वीरान प्यासा रेगिस्तान इसे देखने वालो के हृदय में एक प्यास पैदा करता हैं. इसमें "कुछ नहीं" के बावजूद भी बहोत कुछ हैं और मैं इस "कुछ नहीं" को जानने ही आया हूँ.
अब शाम ढल कर रात में तब्दील होने लगी है. और धीरे धीरे गहराती जा रहीं है. बाहर कुछ दिखाई नहीं पड़ता. कभी कभी कोई गाँव नज़र आ जाता है. कुछेक बल्ब टिमटिमा रहे होते है. बस कुछ देर को रूकती है फिर सवारियाँ ले कर चल पङती है. लगभग नौ बजे बस चालक रात के भोजन के लिए इंजिन को कुछ देर के लिए विश्राम देता है. इस कोकून से निकलना भी एक प्रोजेक्ट है, मगर भोजन में ठेठ राजस्थानी रंग घुला है, केर सांगरी की भाजी, दाल बंजारी और बाजरे की रोटी पर्याप्त शुद्ध घी के साथ और इतने में ढाबे वाला लड़का केर डक (किशमिश) की सब्ज़ी भी ले आता है, मुझे एहसास हो चला है, मैं अब राजस्थान में बहोत अंदर घुस आया हूँ...
इस बढ़िया भोजन के बाद अब अपने कोकून में घुसकर नींद के आगोश में जाने का समय है, बस में नीचे की सीटों पर जरूरत से ज़्यादा लोग बैठे है. धीरे धीरे वो बीच वाली जगह भी भर जाती है. और वे लोग आवागमन ही अवरुद्ध कर देते हैं. मैं अपने आप को भाग्यशाली समझता हूँ और मुझे यह कोकून लक्जुरी का एहसास देने लगता है.
दरअसल जैसलमेर तक ट्रेन सेवाएं है, मगर मैं कल सुबह पहुंचना चाहता था और उस वक्त के हिसाब से कोई ट्रेन उपलब्ध नहीं थी. जैसलमेर तक सीधी फ़्लाइट नहीं है. जयपुर से जोधपुर फ़्लाइट है, जो वाया देहली या अहमदाबाद से जाती है, और चार पांच घंटो में जोधपुर पहुंचा देती है. वहाँ से जैसलमेर की दूरी 5 घंटो की है, मगर मैंने यही रास्ता चुना और यकीन मानिये जब तक आप अपनी यात्रा में ऐसी कोई एक आध यात्रा शामिल नहीं करते तब तक आप वो माहौल बिल्कुल जी नहीं पाते.
29 दिसम्बर सुबह दस बजे...जैसलमेर बेस कैंप ...
नींद अब सीधे सुबह ही खुलती है, जैसलमेर आ चुका है. ये सेना का एयरपोर्ट है, गर्जना करते हुए युद्धक विमान दिन भर उड़ान भर कर पड़ोसियों को अपनी मौजूदगी का एहसास देते रहते है.जैसलमेर देश का आखिरी छोर है. इसके पश्चात न ख़त्म होने वाला रेगिस्तान और फिर उस पार पाकिस्तान है.
राजस्थान याने राजे रजवाड़ो की जगह, राजस्थान याने राजाओ का स्थान. राजपूतो के शौर्य की गाथा जहाँ की हवाओ में है, ये वो जगह है जहाँ हर कहानी का प्रमाण अभी भी मौजूद है. आप देख सकते हैं. छू कर महसूस कर सकते हैं.
मैं रिपोर्टिंग स्थान का पता ऑटो वाले को समझाता हूँ. केंटोनमेंट से होते हुए वह सेना के ही एक कैंपस में दाखिल होता है. यह बड़ा मैदान है. यही YHAI का बेस केम्प है. दिसंबर के इस मौसम में यहाँ तीन कैंप एक साथ लगे है. जो पूरे एक माह चलेंगे. सब मिला कर तकरीबन तीन सौं लोग होंगे. पहला है फैमिली कैंप, दूसरा बायसाइकल और तीसरा विंटर ट्रैकिंग जिसमे मैं आया हूँ.. सेना ने यह जगह YHAI वालो को कुछ दिनों के लिए दे दी है .
अभी दोपहर के एक बजे हैं. मैं रिपोर्टिंग कर चुका हूँ. टेबल पर ट्रैकर्स की लिस्ट रखी है. मैं तलाश करता हूँ कुछ नाम जो इतना लम्बा सफर करते हुए यहाँ तक पहुंचेंगे. तकरीबन आधे भारत से लोगो का आना जारी है. YHAI द्वारा लंच प्रारम्भ किया जा चुका है. इस वक्त धूप खिली है और मौसम खुशगवार हैं. पड़ोसी राज्य गुजरात से कुछ लोग आये हैं. हम लोग आपस में विचार कर आसपास कुछ किले वैगरह देखने निकल जाते हैं. चुकि कल अगले कैंप लिए निकलना है तो आज का दिन जैसलमेर देखने में उपयोग किया जा सकता है. जैसलमेर किला पास में हैं हम इसे देखने चलते है. पटवा की हवेली भी पास में ही है.
जैसलमेर किले के रास्ते पर गरमागरम कचोरियाँ, समोसे जलेबी और इसी तरह की दूसरी खाने पीने की होटलें है. राजस्थानी कारीगरों को इस काम में महारत हासिल है, बिल्कुल यहीं स्वाद इंदौर के सराफा और 56 दुकान में मिलता है. बाद में ज्ञात हुआ उनमे से ज्यादातर कारीगर राजस्थान से गए थे.
जैसलमेर का किला राजस्थान का दूसरा सबसे पुराना किला है, जिसे 1156 ई. में राजपूत रावल (शासक) जैसल ने बनवाया था, यह महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों ( प्राचीन रेशम मार्ग सहित ) के लिए उचित माध्यम था.
उम्दा पच्चीकारी वो हुनर......राजस्थानी कारीगर अपनी वो निशानी छोड़ गए, जिसे देख कर मुँह खुला का खुला रह जाता है. 2013 में राजस्थान के 5 अन्य किलों के साथ "यूनेस्को विश्व विरासत" का दर्ज़ा इसे यूँ ही तो नहीं मिला. गर्व हो जाता है यह सब देख कर कि कभी देश में ऐसी भी सरंचना का निर्माण होता था. नियत में ईमान हो तो क्या कुछ संभव नहीं है ?
राजा जेसल के नाम से ही इस शहर का नाम भी जेसलमेर पड़ा और जैसलमेर किला शहर के मध्य में स्थित है, एवं लगभग आधा किलोमीटर लम्बा और 1500 फ़ीट ऊँचा है. यह दुनिया में बहुत कम "जीवित किलों" में से एक माना जाता है (जैसे कारकैसन , फ्रांस ), यह आश्चर्य का विषय है कि वक्त की एक लम्बी यात्रा करते करते थक चुके राजस्थान या देश के दूसरे किले जो अब सिर्फ पर्यटकों के घूमने की जगह बन चुके हैं या वीरान हो अपने जिंदगी की अंतिम घड़ियां गिन रहे है, वहीँ जैसलमेर के इस किले ने वक्त को अपने ऊपर हावी न होने दिया और पुराने शहर की लगभग एक चौथाई आबादी अभी भी किले के भीतर बरसो बरस पूर्व अपने ही हाथो बनाये मकानो में रहती है. वे अपनी मिटटी से अभी तक जुड़ कर कितने आनंद और सुकून से रहते होंगे. इस किले ने अपने इतिहास के बेहतर हिस्से को देखा है , राजपूतो की शान की प्रतीक यह सरंचना उनकी वीरता और शौर्य का स्पष्ट प्रमाण हैं. जैसलमेर की बढ़ती आबादी को समायोजित करने के लिए किले की दीवारों के बाहर की पहली बस्तियों के बारे में कहा जाता है कि यह 17 वीं शताब्दी में बनवाई गई थी .
किले की विशाल दीवारें पीली बलुआ पत्थर द्वारा बनाई गई थीं , जो सूर्य के प्रकाश में पीले रंग के सामान नज़र आती है, मगर सूरज के ढलने के साथ ही किले की दीवारों का रंग फेड होने लगता है. इसी कारण से इसे सोनार किला या स्वर्ण किले के रूप में भी जाना जाता है. त्रिकुटा पहाड़ी पर महान थार रेगिस्तान के रेतीले विस्तार के बीच यह क़िला आज शहर के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, इसके चारों ओर कई मील तक दिखाई देने वाले किलेबंदी के विशाल मीनारें है.
सिर्फ आठ लाख की आबादी वाला जैसलमेर शहर बहोत बड़ा नहीं है, राजस्थान के एक छोर पर बसे इस शहर के आसपास पीली रेत होने की वजह से इसे गोल्डन सिटी भी कहा जाता है.
जैसलमेर किले से थोड़ी ही दूर पर पाटवा हवेली है. एक और राजस्थानी राजपूत के शौर्य का जवाब न था तो दूसरी और वे गजब के व्यापारी थे. उनका रहन सहन किसी राजा से काम न था. गुमान चंद पाटवा मुख्यतः कारोबारी थे. मगर राजाओं की तरह शानोशौकत से रहा करते थे. पाटवा जी की हवेली वास्तुकला का एक दिलचस्प टुकड़ा है और जैसलमेर की हवेलियों में सबसे महत्वपूर्ण है. यह ठीक दो बातों के कारण है, पहला यह कि यह जैसलमेर में पहली हवेली थी और दूसरी यह कि यह एक हवेली नहीं है बल्कि 5 छोटी हवेलियों का एक समूह है. इन हवेलियों में सबसे पहले निर्माण 1805 में गुमान चंद पटवा द्वारा किया गया था यह माना जाता है कि पटवा एक अमीर आदमी थे और अपने समय के एक प्रसिद्ध व्यापारी थे उन्होंने अपने 5 बेटों में से प्रत्येक के लिए अलग हवेलियों का निर्माण करवाया ये 50 साल की अवधि में पूर्णं हुए सभी पांच घरों का निर्माण 19 वीं शताब्दी के पहले 60 वर्षों में किया गया था.
पटवा परिवार कढ़ाई के कपड़े में इस्तेमाल होने वाले रेशम, सोने और चांदी के धागों में काम करता था हालांकि, ऐसे सिद्धांत हैं, जो दावा करते हैं कि इन व्यापारियों ने मनी-लेंडिंग, बैंकिंग आदि में काफी पैसा कमाया. ये लम्बी लम्बी यात्राएं करते थे और अकूत संपत्ति के मालिक थे. इनकी हवेलियों से आप अंदाजा लगा सकते है उनका रहन सहन किसी राजा से कम न था.
मेरा मानना हैं पालीवाल ब्राह्मणों के साथ अच्छे सम्बन्ध होने और पालीवालों के फैलने फूलने के साथ ही पाटवा परिवार का भी कारोबार खूब परवान चढ़ा होगा.
पटवाओ की हवेली सबसे बड़ी हवेली है और एक संकरी गली में है. इस हवेली पर वर्तमान में सरकार का कब्जा है, जो विभिन्न उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग करती है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राज्य कला और शिल्प विभाग का कार्यालय हवेली में ही स्थित है.
एक लम्बे काल खंड के पश्चात भी आप दीवार पर चित्रों और दर्पण-कार्यों की एक अच्छी मात्रा पा सकते हैं. अन्य महत्वपूर्ण पहलू इसके प्रवेश द्वार और मेहराब हैं. आप प्रत्येक आर्च पर व्यक्तिगत चित्रण और विषय देखेंगे. यद्यपि पूरी इमारत को पीले बलुआ पत्थर से बनाया गया है, पटवा जी की हवेली का मुख्य द्वार भूरे रंग में है.
शाम चार बजे...
अगले सात दिनों के कार्यक्रम की एक विस्तृत ब्रीफिंग के लिए सभी सेना द्वारा बनाये गए एक साउंड प्रूफ खुले बैंकर में उतरते हैं, यह एक बड़ा खाली स्विमिंग पूल की तरह बनी सरंचना है ,जिसे सेना अपने गुप्त मंत्रणा के लिए उपयोग करते है. यहाँ से आवाज बाहर नहीं आती. YHAI के सभी ट्रेकिंग प्रोग्राम में नियमानुसार यह ब्रीफिंग पैतालीस मिनिट से एक घंटे की हो सकती है.
हर थोड़ी देर में एक जेट या युद्धक विमान कान फोड़ देने वाली आवाज के साथ आकाश का सीना चीरते हुए गुज़रता है, जैसे अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा हो कि इस वक्त बस उसके सिवा किसी और चीज़ का कोई आस्तित्व मायने नहीं रखता. पकिस्तान बॉर्डर पास ही में है, ये दुश्मन को एक चेतावनी भी है कि हम युद्ध के लिए सदा तैयार ही नहीं रहते, बल्कि उतावले भी रहते है, यदि दुश्मन चाहे तो.
31 दिसम्बर सुबह दस बजे,खरारा कैम्प
ब्रेकफास्ट हो चूका है, एक बस सभी ट्रेकेर्स को शहर के बाहर लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर छोड़ने के लिए तैयार है. खरारा कैम्प के लिये पहले दिन की ट्रैकिंग वही से प्रारम्भ होगी .
पूर्व निर्धारित स्थान से आगे जाने की इजाजत ड्राइव्हर को नहीं है, अब यहाँ से खरारा कैम्प तीन घंटो की दूरी पर है. इस तरह पहला ट्रेक प्रारम्भ होता हैं, गाइड ने बताया सिर्फ दिसम्बर के ठंडे मौसम में ही राजस्थान की धरती पथिको को अपने ऊपर से गुजरने देती है. गर्मी में यहाँ का तापमान 45 -26 डिग्री सेल्सियस हो जाता है जो देश के दूसरे शहरों जितना ही है मगर रेतीली जमीन उससे कही ज्यादा गर्म हो जाती है. उपर से सपाट मैदान में चलने वाली धूल भरी आंधी राहगीरों पर कहर ढाने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं. तब इस रास्ते बहोत कम लोग गुज़रते हैं. मगर अभी दिसम्बर में तापमान 26 -10 डिग्री सेल्सियस है.
आगे एक खेत है, एक किसान है, पास में उसका मकान है, ज़रा दूर पर उसका एक ऊट बैठा है. पास में कुछ टेंट लगे है, तो यही हैं खरारा कैम्प . रेगिस्तान के बीचो बीच YHAI ने रूकने की जो व्यवथा की है, अद्भुत हैं यह किसी एडवेंचर से कम नहीं. यहाँ व्यवस्था बनाये रखना आसान काम नहीं हैं. यहाँ से रेगिस्तान के सुबह, दोपहर, शाम और रात के बदलते हुए रूपों का दर्शन किया जा सकता हैं.
तीन बजने को है, ये खरारा कैम्प है. YHAI ने सम्पूर्ण भारत से अगले सात दिनों के लिए 35 लोग दिए है. वे सफर के अंत तक साथ रहेंगे. इसमें एक डॉक्टर परिवार है जो अपनी पत्नी और दो बच्चो के साथ आये है ,एक कपल का अभी कुछ ही दिन पहले विवाह हुआ है,और एक सरकार के पर्यावरण विभाग में काम करने वाली जीवट महिला है. इन्होने एवरेस्ट बेस कैंप का ट्रेक सफलता से पूर्ण किया, वो अनुभव से और शक्ति से भरी है, कुछ स्टूडेंट भी हैं.
अगले सात दिनों में यह कारवां किसी भी किले या महल से नहीं गुजरेगा. उसके लिए YHAI के दूसरे ट्रेक है. फ़िलहाल यह ट्रेक विशुद्ध रूप से प्रकृति को समर्पित है, और यहाँ प्रकृति से तात्पर्य मीलो तक फैले मैदान और सिर्फ मैदान से है. वो लोग जो सामान्य जगहों से आते है उनके लिए बदले हुए परिवेश जिज्ञासा का विषय हो जाते है. ये मानव की सामान्य प्रकृति का द्योतक हैं. तो यहां भी जानने को बहुत कुछ है और इसके लिए फ़िलहाल सात दिन पर्याप्त है.
पास वाले मकान में जो अगले एक माह के लिये YHAI का किचन होगा, अब कुछ हलचल होने लगी है, खानसामा चाय तैयार करने में लगा है, उसके साथी रात के भोजन की तैयारी कर रहे है,जो शाम ढलने के पहले यानी सात के आसपास संपन्न होगा. हम सुबह ब्रेकफास्ट के पश्चात और लंच बॉक्स ले कर निकले थे. जिसे एक ऊँचे टीले पर बैठ कर खा लिया गया था.
रात के भोजन मैं केर सांगरी की भाजी, रोटी, दाल, चावल, खीर, तली हुई हरी मिर्च, और सलाद हैं, इन सबके साथ शुद्ध घी की खुशबू भूख बढ़ा देती है. अभी अभी ढला हुआ सूरज अब भी अपनी लालिमा आकाश में बिखेर रहा है, यह अनुभव करने की चीज़ है.
रात के आठ बजे है, जैसलमेर के एक प्रसिद्ध हास्य कवि हैं , जिनकी कविता मैं टीवी पर भी सुन चुका हूँ. हमारे कैम्प लीडर के दोस्त हैं और यह हमारा सौभाग्य है कि वे उनके आग्रह पर आये है. वे कुछ हास्य कविताएं सुनाते है और मोबाईल और लेपटॉप में डूबे रहने वाले स्टूडेंट्स और कंपनी में काम करने वाले लोग हँस हँस के लोटपोट हो जाते है. अचानक उनका वो देसीपन जाग उठता है, जो पराये देशो से आये विदेशी कंपनी की संगत में ज़रा दब चुका था जहाँ वे काम किया करते है, इस आबोहवा, इस मिट्टी ने उन्हें कुछ इस तरह गले से लगाया है कि वे भूल चुके है कि वे वातानुकूलित व्यवस्था में काम करने वाले निहायत सफाई पसंद और हर काम में मीन मेख निकलने वाले व्यक्तित्व हैं. मगर अभी भी उनमे से कुछ इस बदले वातावरण से एक सार नहीं हो पाए है, मगर वो बने तो इसी मिटटी से हैं, उनका पोर पोर, रोम रोम इसमें भीगा है और बस बहोत जल्द वे इसमें रच बस जायेंगे...
रात के नौं तीस हो चुके है, एक सन्नाटा पसरा है. टेंट से टकराने वाली हवाएं अपनी मौजूदगी का एहसास करवा रही है. सब भले ही थोड़ी देर में नींद के आगोश में चले जायेंगे, मगर प्रकृति बिना आराम किये अपना काम करती रहेंगी...
1 जनवरी सैम सैंड ड्यून्स...
सुबह के छह बज चुके है. कैम्प लीडर बड़े मिलनसार और हँसमुख व्यक्ति हैं. वे वॉलेंटेरियल सेवाएं दे रहे है. अभी थोड़ी देर पश्चात सैम सैंड ड्यून्स के लिए निकलना है दरअसल फिल्मो में देखे जाने वाले सैंड ड्यून्स हर जगह नहीं होते यह बीच बीच में कहीं कहीं पाए जाते हैं, चूँकि ये पर्यटकों के रूचि के केंद्र होते है अतः सरकार यहाँ साफसफाई विशेष ध्यान देती हैं. मैदानों में मिटटी होती है, मगर रेत का अंश भी होता हैं, सो उपजाऊ नहीं होती, झाड़िया बहुतायत में पाई जाती है केर सांगरी के चार फ़ीट ऊँचे पेड़ भी पाए जाते है जिसकी फलियां खाने योग्य होती हैं.
ब्रेकफास्ट के पश्चात, एवं पैक्ड लंच ले कर YHAI का यह कारवाँ सैम सैंड ड्यून्स की और प्रस्थान करता हैं. गाइड के साथ उसका ऊँट भी हैं. सुबह के नौ बजे है, तीन बजे अगले कैम्प तक पहुंचेंगे. आज रास्ता ज़रा लम्बा है.
कुलधरा शापित गाँव की दास्तान...
(कुलधरा गाँव के कुछ भग्नावेश.नीचे पिक्स देखे )
कुलधरा की कहानी के बगैर यहाँ से आगे बढ़ना ठीक नहीं होगा. अपने आत्सम्मान के लिए राजपूतों द्वारा दी गई कुर्बानिया तो सब जानते हैं, मगर इसमें कुलधरा के पालीवाल ब्राह्मण भी पीछे नहीं रहें,उन्होंने जो कुर्बानी दी शायद ही किसी ने अब तक दी होगी. आखिर इतिहास रच देने वाले इस वाकये को जानना ज़रूरी है.
जैसलमेर नगर से 18 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक शापित और रहस्यमयी गाँव कुलधरा स्थित है, जिसे आत्माओं का गाँव (Haunted Village) भी कहा जाता है. अभी भी गाँव के मकानों के भग्नावशेष चमक दमक से भरे अपने वक्त की दास्तान सुनाते है और किस तरह पालीवाल ब्राह्मणों ने अपनी मेहनत और सूझ बूझ से 85 गाँव बसाये थे. यह माता-रानी के मन्दिर को केन्द्र में रखकर उसके चारों और फैला हुआ था.
कुलधरा गाँव – ब्राह्मणों के क्रोध का प्रतीक हैं, जहाँ आज भी लोग जाने से डरते हैं जाते भी है तो शाम के पश्चात वहां कोई नहीं ठहरता . कुलधरा गाँव आज से 500 साल पहले 600 घरो और 85 गाँवों का पालीवाल ब्रह्मिनो का ऐसा साम्राज्य था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है, रेगिस्तान के बंजर धरती में जहाँ पानी नहीं मिलता वहाँ पालीवाल ब्रह्मिनो ने ऐसा चमत्कार किया जो इंसानी दिमाग से बहुत परे थी, उन्होंने जमीन पर उपलब्ध पानी का प्रयोग नहीं किया, न बारिश के पानी को संग्रहित किया बल्कि रेगिस्तान के मिटटी में मौजूद जिप्सम की जमीन खोजी और अपना गाँव जिप्सम की सतह के ऊपर बनाया, ताकि बारिश का पानी जमीन सोखे नहीं, वे अपने खेतो में गेहू ज्वार और बाजरा उगाते थे उनके पास प्रचुर मात्रा में सोना चांदी और रूपया था और किसी बात की कमी न थीं. गाँव इस तरह बसाया कि दूर से अगर दुश्मन आये तो उसकी आवाज उससे 4 गुना पहले गाँव के भीतर आ जाती थी. हर घर के बीच में आवाज का ऐसा मेल था जेसे आज के समय में टेलीफोन होते हैं.जैसलमेर के क्रूर व अत्याचारी दीवान और राज्य मंत्री सालिम सिंह को ये बात हजम नहीं हुई कि ब्राह्मण इतने आधुनिक तरीके से खेती करके अपना जीवन यापन कर सकते हैं, तब खेती पर कर लगा दिया गया. पालीवाल ब्रह्मिनो ने कर देने से मना कर दिया, सलीम सिंह ने गाँव के मुखिया से कहाँ कहा, या तो वह कर दे या अपनी बेटी दीवान के हवाले कर दे. ब्रह्मिनो को अपने आत्मसम्मान से समझौता बिलकुल बर्दास्त नहीं था. 85 गाँवों की एक महा पंचायत बैठी उन्होंने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया कि, बरसो की मेहनत से बसाये अपने गाँव को वे एक ही रात मैं खाली करके चले जायेंगे.
मगर इसके विपरीत उनके गांव छोड़ने का एक कारण यह भी प्रचलित है कि, लूटपाट से त्रस्त पालीवाल जैसलमेर राज्य में असुरक्षित महसूस करने लगे. काठौड़ी गांव में पालीवालों की 84 गांव की सभा में यह निश्चय किया गया कि हम रक्षाबंधन के दिन जैसलमेर स्टेट छोड़कर चले जाएंगे और श्रावण पूर्णिमा 1885 संवत् में एक ही रात में अपने अपने गांवों को छोड़कर चले गए.
रातों रात 85 गाँव के ब्राह्मण कहाँ गए ? केसे गए ? और कब गए ? इस चीज का पता आज तक नहीं लगा. पर जाते जाते पालीवाल ब्राह्मण शाप दे गए कि ये कुलधरा हमेशा वीरान रहेगा इस जमीन पे कोई फिर से नहीं बस पायेगा,
आज भी कुलधरा का तापमान जैसलमेर और आसपास से कुलधरा गाव आते 4 डिग्री अधिक होता हैं .वैज्ञानिको की टीम जब पहुची तो उनके मशीनो में आवाज और तरगो की रिकॉर्डिंग हुई जिससे ये पता चलता हैँ की कुलधरा में आज भी कुछ शक्तिया मोजूद हैं जो इस गाँव में किसी को रहने नहीं देती. आज भी कुलधरा गाँव की सीमा में आते ही मोबाइल नेटवर्क और रेडियो काम करना बंद कर देते हैं पर जेसे ही गाँव की सीमा से बाहर आते हैं मोबाइल और रेडियो शुरू हो जाते हैं.यह भी भौगोलिक कारणों से संभव हो सकता है.
जैसलमेर जब भी जाना हो तो कुलधरा जरुर जाए. ब्राह्मण के क्रोध और आत्मसम्मान का प्रतीक है, कुलधरा. अभी राजस्थान सरकार ने इसे पर्यटन स्थल का दर्जा दे दिया है, इस कारण अब देश एवं विदेश से पर्यटक आते रहते है.
कारवाँ आगे चलता रहता हैं, ये एक और सैंड ड्यून हैं समूह के कुछ लोग अपने को रोक नहीं पाते. उनके भीतर का बालक मचल उठता हैं. वे रेत में ऊंची ऊँची छलांगे मार रहे हैं. कुछ बच्चे भी है. मैं कुछ पिक्स लेने की कोशिश कर रहा हूँ. बड़ी मुश्किल से कुछ यादगार पिक्स आ पाती है...
सैम सैंड ड्यून्स आने ही वाला है, एक मुख्य सड़क के किनारे बहोत से टेंट लगे है, भारी संख्या में पर्यटकों का जमावड़ा है, ये सभी अलग अलग जगह स्थित फाइव स्टार टेंट में रह रहे हैं. विदेशी पर्यटक भी काफी तादाद में आये हुए है .कल शायद बड़ा जलसा होगा. यहाँ से 150 किलोमीटर पर पकिस्तान की बॉर्डर प्रारंभ होती है.
सैंड ड्यून्स अद्भुत है, पर गहमागहमी है, कई फिल्मो की शूटिंग हो चुकी है. अभी सूर्यास्त होने में दो घंटे हैं मगर लोग अभी से अपना स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं. ऊँट और ऊँट गाड़ियों की भरमार है, मगर आश्चर्य की बात है, गुटके के खाली पाउच नहीं दिखाई देते.
सूर्य दिन भर की थकान मिटाने के लिए कुछ देर विश्राम करना चाहता हैं. धीरे धीरे आकाश से धरती की और अपना सफर तय करता जा रहा हैं. अब अब अपनी लालिमा आकाश में अंतिम बार फैला कर विदा लेता है.
2 जनवरी सुदासरी सैंड ड्यून्स / रिज़र्व फारेस्ट
अगले दिन सुबह मुख्य सड़क पर काफी सारे ऊँट अपने मालिकों के साथ खड़े है. आज सफर सुदासरी सैंड ड्यून्स तक का हैं. ऊँट की सवारी लगभग आठ किलोमीटर तक होगी. उसके पश्चात सुदासारी कैम्प तक दस किलोमीटर तक ट्रेकिंग. पहले एक ऊँट नीचे बैठता है फिर उस पर दो व्यक्ति बैठ जाते हैं बड़ी ही अजीब स्थिति से वह खड़ा होता हैं और चल पड़ता हैं. यह आनंददायक हैं. ऊँट की ऊँचाई नज़ारो को देखना आसान बना देती है.
सुदासरी डेजर्ट नेशनल पार्क 3262 वर्ग किलोमीटर में फैला है. विभिन्न मौसम में बहार से आने वाले अतिथि पक्षियों में और जो यहाँ रहते है उनमे प्रमुख द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पक्षी को बचाने का प्रमुखतः उपाय किया जा रहा है, वैसे वे यहाँ बहुतायत से पाए जाते है. अन्य पक्षियों में चील, फाल्कन, बजार्ड हैं. इसके अलावा लोमड़ी, खरगोश, भेड़िया आदि पाए जाते है. आम आदमी को यहां जाने की इज़ाज़त नहीं है, मगर YHAI के लिए सरकार ने स्पेशल परमीशन दे दी है. डेजर्ट नेशनल पार्क के पास जीवाश्म का भी अच्छा कलेक्शन है जो अठारह करोड़ वर्ष पुराने है. छह करोड़ वर्ष पूर्व के डायनोसोर के जीवाश्म भी यहां पाए गए हैं. हम आज की रात मुख्य पार्क के भीतर गुजारेंगे.
पार्क में घूमने का बेहतर समय नवम्बर से जनवरी के मध्य में है यह अच्छी बात हैं कि हम दिसम्बर के इस वक्त यहां है. सुदासरी के पश्चात अगला एवं अंतिम पड़ाव बारना है.
जहाँ मस्ती हो जहाँ घूमने की बात हो वहाँ गुजरातियों की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता हर माहौल का पूरा लुत्फ उठाना वे अच्छी तरह जानते है. अमूनन हर रात गरबा की धूम है. इससे कड़क ठण्ड में भी गर्मी आ जाती है. इस ट्रेक में भी गुजराती बहोत है , वैसे भी उनका राज्य पड़ोस में हैं.
आज के डिनर में दाल बाटी और चूरमा हैं, शुद्ध घी के साथ...
रात है, ठण्ड है, नींद है, और थकान है... अभी रात के सिर्फ आठ बजे है...और बस सन्नाटा पसरा है. कभी कभी सियार और जंगली जानवरो की आवाजे आती रहती हैं. .....
3 जनवरी बारना...
सुबह के छह बजे चाय,
सात बजे ब्रेकफास्ट,
और आठ बजे पैक्ड लंच ले कर अगले और आखिरी कैम्प ( बारना ) के लिए प्रस्थान,
हर सुबह निकलने के लिए यह YAAHI का सम्पूर्ण देश के लिए निर्धारित शेड्यूल है.
बारना पहुंचते पहुंचते दोपहर के लगभग दो बज जाते हैं. बारना कैम्प के समीप ही एक गाँव हैं, यहां रहने वाले विशुद्ध राजस्थानी जीवन जीते हैं. अब उनकी जीवन शैली से परिचित होने उस और चल पड़ते हैं. उनके मकान आपस में सटे है. कपड़ों में राजस्थानी रंग हैं, कुछ देर घूमने के पश्चात अपने साथ लाया हुआ खाने का सामान और कुछ टाफियां वहां बच्चो में वितरित कर देते है.
3 जनवरी सुबह के पांच तीस हुए है. उस वक्त पौ फटने ही वाली थी और छह बजने मे कुछ ही समय शेष था . मैंने देखा अभी भी कुछ लोग सो रहे है . YHAI के खानसामा ने अंगीठी सुलगा ली है. तीन चार ट्रेकर्स उठ चुके हैं, कल की रात इस ट्रेक की आखिरी रात होने की वजह से जम कर गरबा खेला गया, सो अभी भी काफी लोग सो रहे है. हमने अँगीठी को चारो और से घेर लिया है. ठण्ड अभी भी कड़ाके की है. यहाँ न कोई ट्रैफिक हैं, ना कोई कारखाने तो इन सबके कारण तापमान काफी नीचे चला जाता हैं. तभी एक शख्स आ कर खड़ा हो जाता हैं, पहनावे से वो कोई चरवाहा लगता हैं. शायद आसपास किसी गावं से आया होगा, मैं उसके सम्बन्ध में और जानने के लिए उससे बात करता हूँ ,
उसने बताया ,
"वो सुबह चार बजे उठा था और अपनी भेड़े लेकर निकल गया."
इतना कह कर उसने ठंडे पानी से मुँह धो कर अपना ग्लास चाय से लगभग पूरा ही भर लिया.
मैंने पूछा "कहाँ है भेड़े तुम्हारी ?
" यहाँ से 10 किलो मीटर.." उसने गरम चाय सुड़कते हुए जवाब दिया.
अब तक मैंने भी अपना कप चाय से भर लिया था.
ठंड से मेरे हाथ जम न जाए इसलिए मैंने हथेलियो के बीच कप को छुपा लिया .
"वो कहीं नहीं जाएँगी....?" मैंने पूछा
नहीं, वो कहीं नहीं जाएँगी... उसने जवाब दिया
"वो सब साथ रहती हैं." उसने आगे कहा
"रोज आते हो इतनी दूर…….? " मैंने सवाल किया,
“…हाँ, पिछले आठ दस दिनों से ,जबसे आपका कैम्प लगा है तबसे. आपका खानसामा मेरा दोस्त है ."
"तो क्यों आते हो इतनी दूर "? मैंने पूछा,
"पीने को पानी और गरम चाय मिल जाती है इसलिए " उसने जवाब दिया .
मैंने सोचा, "एक कप चाय और पीने के लिए पानी की कीमत इस चरवाहे से बेहतर कौन जान सकता है ?"
इस आखिरी कैम्प के पश्चात अब अपना सामान बांधने का और राजस्थान की इस धरती को अलविदा करने का वक्त आ चुका हैं . बस आ चुकी है. यह बस बीस किलोमीटर दूर बेस कैम्प तक ट्रेकर्स को छोड़ देगी. वहां से वे ट्रेन बस या फ्लाइट से अपने अपने शहरों को लौट जाएँगे. सामान लोड कर लिया गया है. सवार होते ही बस चल पड़ती है. बस में लगा सीडी प्लैयर को D.J. बना लिया जाता हैं और लोग थिरकने लगते है. इस स्वर्ण अरण्य में बिताए पिछले कुछ दिनों में जो आनंद दिलो में भर आया हैं , अब वो छलकने लगा हैं. यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक बेस कैम्प नहीं आ जाता. मुझे कल ट्रेन से निकलना है अभी दिन के ग्यारह बजे है.
जैसलमेर में सालिम सिंह एवं नाथमल जी की हवेली भी देखी जा सकती है.
जिस तरह एक माँ को अपने सभी बच्चे एक समान प्यारे होते हैं ठीक वैसे ही देश का हर भाग समान रूप से सम्मान का अधिकारी होना चाहिए. अपने व्यस्त समय से थोड़ा समय निकाल कर उन सुदूर जगहों पर क्यों नहीं जाया जाए , जो स्थान वक्त के थपेड़े खा कर भी सर उठाये शान से जी रहे है..
एक अवसर मिला अपने देश के उस सुदूर भाग तक जाने का जो अब तक अनजाना था. हम उस धरती से मिल आये जो हमारी अपनी हैं, हम उसे प्रणाम कर आये, हमने कुछ दिन बिता कर उसे एहसास दिलाया हम उसके साथ हैं और सदा साथ रहेंगे. हिंदुस्तान की इस धरती के लिए वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी हैं. सीमा तक जा कर यह एहसास हुआ कि देश का विस्तार कहाँ तक हैं ? ये धरती हमारी मातृ भूमि है... और हमारी रहेगी....
पुनश्च :
सरल भाषा में लिखते हुए मैं विषय और हिन्दी दोनों को आम जन तक पहुँचाने का एवं हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का बहोत छोटा प्रयास करने की बहोत छोटी सी कोशिश भर कर रहा हूँ....
पर्यटन को कहानी एवं काव्यात्मक रूप से लिख कर रूचिकर बनाने का प्रयास किया गया हैं.
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Right click block अपने गृह स्थान से 895 किलोमीटर की रेल यात्रा कर मैं जिस स्टेशन पर पहुँचता हूँ, उस स्टेशन पर लगे नाम पट्ट पर जयपुर लिखा है. कोई जल्दी नहीं है, मुझे आज शाम पांच की बस पकड़ कर जैसलमेर जाना है, मेरे पास सामान भी कुछ ख़ास नहीं है. बस एक रक्सक है, अगले सात आठ दिन तक जिसे मुझे उठा कर चलना है. पहाड़ो की बनिस्बत यह ट्रेक आसान है, पहाड़ो पर थोड़ा भी सामान ज़्यादा हो जाता है तो मुश्किल हो जाती है. मैं कुछ ज़्यादा सामान भी रख सकता था मगर ज़्यादा या कम क्या होता है ? जितना ज़रूरी हो उतना ही काफी है. तो अब मुझे यहीं उतरना है.
जयपुर राजधानी है राजस्थान की. प्राचीन विरासत और आधुनिकता का संगम है यह शहर, यहाँ घूमने के लिए बहोत कुछ है, मगर मैं कुछ घंटे अंकल एवं आंटी के साथ बिताना चाहता हूँ, जो यहीं रहते हैं, जिनसे मैं कई वर्षो से नहीं मिला हूँ. मैंने उनसे फोन पर कहा कि, मैं आपका पता ढूंढ लूँगा. मगर वो यह निवेदन नहीं मानते और स्टेशन तक पहुंचते हैं.
तो इस तरह मेरे लिए आज दिन भर का दिन है, फिर से पुरानी स्मृतियों में कुछ देर भ्रमण करने के लिए. कुछ रिश्ते काल खंड में नहीं मापे जा सकते ये पता नहीं कहाँ से आरम्भ होते हैं और कहाँ ख़त्म होते हैं, शायद ख़त्म ही नहीं होते, जीवन पर्यन्त चलते ही रहते हैं.
बातों का सिलसिला मेरे आने के बाद से लगातार चलता जा रहा है. मेरे कारण आज वो दोपहर की झपकी भी नहीं ले पाए हैं. उनका स्नेह साफ़ साफ़ दृष्टिगोचर होता है. उनसे वार्तालाप के दौरान मैं महसूस करता हूँ, वो चाची जी के साथ काल के उसी खंड में पहुंच चुके हैं, जहाँ उन्होंने ज़िन्दगी के अपने बेहतरीन दिन गुज़ारे थे . वैसे वो अभी भी सुकून से हैं...
शाम के चार बजना चाहते हैं , मैं उनके साथ उनके खूबसूरत लॉन में बैठा हूँ, कैसे इस उम्र में भी वो इसे हरा भरा रखते है ? उन्हें चाची जी के साथ, सुकून के साथ बैठ चाय की चुस्किया लेते हुए देखता हूँ, तो कुछ लाइने मन में उपजने लगती हैं...
एक खूबसूरत जिंदगी के लिए काफी है,
एक ख्याल करने वाला साथी ,
एक पुराना घर और
शाम को लान में बैठ,
सुकून से भरी चाय की चुस्किया...
बस चालक आखिरी बार हॉर्न देता है. यह बस मुझे कल सुबह दस बजे जैसलमेर पंहुचा देगी. ट्रेकर कल दिन भर कभी भी रिपोर्टिंग कर सकते हैं. यह स्लीपर कोच है, ज्यादा आरामदायक तो नहीं है मगर मैं एक ट्रेकर हूँ, परिवार के साथ लक्ज़री हॉलिडे मनाने नहीं निकला हूँ. तो कंडक्टर मुझे मेरी जगह बता देता है, यह एक छह बाय दो फ़ीट आकार का स्लीपिंग बॉक्स है. जी हां बिल्कुल कोकून की तरह है. भीतर जाने के लिए एक छोटी सी जगह, मैं किसी तरह प्रवेश करता हूँ. स्लाइड होने वाला दरवाजा बंद कर लेता हूँ, मगर खिड़की के कांच खुले हैं, इससे ताज़ा हवा भीतर आने लगती है...
थोड़ी ही देर में बस जयपुर शहर की भीड़ भाड़ से बाहर आ जाती है. मैं खिड़की से बाहर देखता हूँ, बाहर न जंगल है, न पहाड़, न कल-कल बहती नदिया है, ऐसा कुछ भी नहीं है , जो मन को मोह ले. कुछ है तो बस मीलो फैला प्यासा रेगिस्तान और उगी हुई बुशेस यानी झाड़ियाँ. मगर फिर भी ये वीरान प्यासा रेगिस्तान इसे देखने वालो के हृदय में एक प्यास पैदा करता हैं. इसमें "कुछ नहीं" के बावजूद भी बहोत कुछ हैं और मैं इस "कुछ नहीं" को जानने ही आया हूँ.
अब शाम ढल कर रात में तब्दील होने लगी है. और धीरे धीरे गहराती जा रहीं है. बाहर कुछ दिखाई नहीं पड़ता. कभी कभी कोई गाँव नज़र आ जाता है. कुछेक बल्ब टिमटिमा रहे होते है. बस कुछ देर को रूकती है फिर सवारियाँ ले कर चल पङती है. लगभग नौ बजे बस चालक रात के भोजन के लिए इंजिन को कुछ देर के लिए विश्राम देता है. इस कोकून से निकलना भी एक प्रोजेक्ट है, मगर भोजन में ठेठ राजस्थानी रंग घुला है, केर सांगरी की भाजी, दाल बंजारी और बाजरे की रोटी पर्याप्त शुद्ध घी के साथ और इतने में ढाबे वाला लड़का केर डक (किशमिश) की सब्ज़ी भी ले आता है, मुझे एहसास हो चला है, मैं अब राजस्थान में बहोत अंदर घुस आया हूँ...
इस बढ़िया भोजन के बाद अब अपने कोकून में घुसकर नींद के आगोश में जाने का समय है, बस में नीचे की सीटों पर जरूरत से ज़्यादा लोग बैठे है. धीरे धीरे वो बीच वाली जगह भी भर जाती है. और वे लोग आवागमन ही अवरुद्ध कर देते हैं. मैं अपने आप को भाग्यशाली समझता हूँ और मुझे यह कोकून लक्जुरी का एहसास देने लगता है.
दरअसल जैसलमेर तक ट्रेन सेवाएं है, मगर मैं कल सुबह पहुंचना चाहता था और उस वक्त के हिसाब से कोई ट्रेन उपलब्ध नहीं थी. जैसलमेर तक सीधी फ़्लाइट नहीं है. जयपुर से जोधपुर फ़्लाइट है, जो वाया देहली या अहमदाबाद से जाती है, और चार पांच घंटो में जोधपुर पहुंचा देती है. वहाँ से जैसलमेर की दूरी 5 घंटो की है, मगर मैंने यही रास्ता चुना और यकीन मानिये जब तक आप अपनी यात्रा में ऐसी कोई एक आध यात्रा शामिल नहीं करते तब तक आप वो माहौल बिल्कुल जी नहीं पाते.
29 दिसम्बर सुबह दस बजे...जैसलमेर बेस कैंप ...
नींद अब सीधे सुबह ही खुलती है, जैसलमेर आ चुका है. ये सेना का एयरपोर्ट है, गर्जना करते हुए युद्धक विमान दिन भर उड़ान भर कर पड़ोसियों को अपनी मौजूदगी का एहसास देते रहते है.जैसलमेर देश का आखिरी छोर है. इसके पश्चात न ख़त्म होने वाला रेगिस्तान और फिर उस पार पाकिस्तान है.
राजस्थान याने राजे रजवाड़ो की जगह, राजस्थान याने राजाओ का स्थान. राजपूतो के शौर्य की गाथा जहाँ की हवाओ में है, ये वो जगह है जहाँ हर कहानी का प्रमाण अभी भी मौजूद है. आप देख सकते हैं. छू कर महसूस कर सकते हैं.
मैं रिपोर्टिंग स्थान का पता ऑटो वाले को समझाता हूँ. केंटोनमेंट से होते हुए वह सेना के ही एक कैंपस में दाखिल होता है. यह बड़ा मैदान है. यही YHAI का बेस केम्प है. दिसंबर के इस मौसम में यहाँ तीन कैंप एक साथ लगे है. जो पूरे एक माह चलेंगे. सब मिला कर तकरीबन तीन सौं लोग होंगे. पहला है फैमिली कैंप, दूसरा बायसाइकल और तीसरा विंटर ट्रैकिंग जिसमे मैं आया हूँ.. सेना ने यह जगह YHAI वालो को कुछ दिनों के लिए दे दी है .
अभी दोपहर के एक बजे हैं. मैं रिपोर्टिंग कर चुका हूँ. टेबल पर ट्रैकर्स की लिस्ट रखी है. मैं तलाश करता हूँ कुछ नाम जो इतना लम्बा सफर करते हुए यहाँ तक पहुंचेंगे. तकरीबन आधे भारत से लोगो का आना जारी है. YHAI द्वारा लंच प्रारम्भ किया जा चुका है. इस वक्त धूप खिली है और मौसम खुशगवार हैं. पड़ोसी राज्य गुजरात से कुछ लोग आये हैं. हम लोग आपस में विचार कर आसपास कुछ किले वैगरह देखने निकल जाते हैं. चुकि कल अगले कैंप लिए निकलना है तो आज का दिन जैसलमेर देखने में उपयोग किया जा सकता है. जैसलमेर किला पास में हैं हम इसे देखने चलते है. पटवा की हवेली भी पास में ही है.
जैसलमेर किले के रास्ते पर गरमागरम कचोरियाँ, समोसे जलेबी और इसी तरह की दूसरी खाने पीने की होटलें है. राजस्थानी कारीगरों को इस काम में महारत हासिल है, बिल्कुल यहीं स्वाद इंदौर के सराफा और 56 दुकान में मिलता है. बाद में ज्ञात हुआ उनमे से ज्यादातर कारीगर राजस्थान से गए थे.
जैसलमेर का किला राजस्थान का दूसरा सबसे पुराना किला है, जिसे 1156 ई. में राजपूत रावल (शासक) जैसल ने बनवाया था, यह महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों ( प्राचीन रेशम मार्ग सहित ) के लिए उचित माध्यम था.
उम्दा पच्चीकारी वो हुनर......राजस्थानी कारीगर अपनी वो निशानी छोड़ गए, जिसे देख कर मुँह खुला का खुला रह जाता है. 2013 में राजस्थान के 5 अन्य किलों के साथ "यूनेस्को विश्व विरासत" का दर्ज़ा इसे यूँ ही तो नहीं मिला. गर्व हो जाता है यह सब देख कर कि कभी देश में ऐसी भी सरंचना का निर्माण होता था. नियत में ईमान हो तो क्या कुछ संभव नहीं है ?
राजा जेसल के नाम से ही इस शहर का नाम भी जेसलमेर पड़ा और जैसलमेर किला शहर के मध्य में स्थित है, एवं लगभग आधा किलोमीटर लम्बा और 1500 फ़ीट ऊँचा है. यह दुनिया में बहुत कम "जीवित किलों" में से एक माना जाता है (जैसे कारकैसन , फ्रांस ), यह आश्चर्य का विषय है कि वक्त की एक लम्बी यात्रा करते करते थक चुके राजस्थान या देश के दूसरे किले जो अब सिर्फ पर्यटकों के घूमने की जगह बन चुके हैं या वीरान हो अपने जिंदगी की अंतिम घड़ियां गिन रहे है, वहीँ जैसलमेर के इस किले ने वक्त को अपने ऊपर हावी न होने दिया और पुराने शहर की लगभग एक चौथाई आबादी अभी भी किले के भीतर बरसो बरस पूर्व अपने ही हाथो बनाये मकानो में रहती है. वे अपनी मिटटी से अभी तक जुड़ कर कितने आनंद और सुकून से रहते होंगे. इस किले ने अपने इतिहास के बेहतर हिस्से को देखा है , राजपूतो की शान की प्रतीक यह सरंचना उनकी वीरता और शौर्य का स्पष्ट प्रमाण हैं. जैसलमेर की बढ़ती आबादी को समायोजित करने के लिए किले की दीवारों के बाहर की पहली बस्तियों के बारे में कहा जाता है कि यह 17 वीं शताब्दी में बनवाई गई थी .
किले की विशाल दीवारें पीली बलुआ पत्थर द्वारा बनाई गई थीं , जो सूर्य के प्रकाश में पीले रंग के सामान नज़र आती है, मगर सूरज के ढलने के साथ ही किले की दीवारों का रंग फेड होने लगता है. इसी कारण से इसे सोनार किला या स्वर्ण किले के रूप में भी जाना जाता है. त्रिकुटा पहाड़ी पर महान थार रेगिस्तान के रेतीले विस्तार के बीच यह क़िला आज शहर के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, इसके चारों ओर कई मील तक दिखाई देने वाले किलेबंदी के विशाल मीनारें है.
सिर्फ आठ लाख की आबादी वाला जैसलमेर शहर बहोत बड़ा नहीं है, राजस्थान के एक छोर पर बसे इस शहर के आसपास पीली रेत होने की वजह से इसे गोल्डन सिटी भी कहा जाता है.
जैसलमेर किले से थोड़ी ही दूर पर पाटवा हवेली है. एक और राजस्थानी राजपूत के शौर्य का जवाब न था तो दूसरी और वे गजब के व्यापारी थे. उनका रहन सहन किसी राजा से काम न था. गुमान चंद पाटवा मुख्यतः कारोबारी थे. मगर राजाओं की तरह शानोशौकत से रहा करते थे. पाटवा जी की हवेली वास्तुकला का एक दिलचस्प टुकड़ा है और जैसलमेर की हवेलियों में सबसे महत्वपूर्ण है. यह ठीक दो बातों के कारण है, पहला यह कि यह जैसलमेर में पहली हवेली थी और दूसरी यह कि यह एक हवेली नहीं है बल्कि 5 छोटी हवेलियों का एक समूह है. इन हवेलियों में सबसे पहले निर्माण 1805 में गुमान चंद पटवा द्वारा किया गया था यह माना जाता है कि पटवा एक अमीर आदमी थे और अपने समय के एक प्रसिद्ध व्यापारी थे उन्होंने अपने 5 बेटों में से प्रत्येक के लिए अलग हवेलियों का निर्माण करवाया ये 50 साल की अवधि में पूर्णं हुए सभी पांच घरों का निर्माण 19 वीं शताब्दी के पहले 60 वर्षों में किया गया था.
पटवा परिवार कढ़ाई के कपड़े में इस्तेमाल होने वाले रेशम, सोने और चांदी के धागों में काम करता था हालांकि, ऐसे सिद्धांत हैं, जो दावा करते हैं कि इन व्यापारियों ने मनी-लेंडिंग, बैंकिंग आदि में काफी पैसा कमाया. ये लम्बी लम्बी यात्राएं करते थे और अकूत संपत्ति के मालिक थे. इनकी हवेलियों से आप अंदाजा लगा सकते है उनका रहन सहन किसी राजा से कम न था.
मेरा मानना हैं पालीवाल ब्राह्मणों के साथ अच्छे सम्बन्ध होने और पालीवालों के फैलने फूलने के साथ ही पाटवा परिवार का भी कारोबार खूब परवान चढ़ा होगा.
पटवाओ की हवेली सबसे बड़ी हवेली है और एक संकरी गली में है. इस हवेली पर वर्तमान में सरकार का कब्जा है, जो विभिन्न उद्देश्यों के लिए इसका उपयोग करती है. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राज्य कला और शिल्प विभाग का कार्यालय हवेली में ही स्थित है.
एक लम्बे काल खंड के पश्चात भी आप दीवार पर चित्रों और दर्पण-कार्यों की एक अच्छी मात्रा पा सकते हैं. अन्य महत्वपूर्ण पहलू इसके प्रवेश द्वार और मेहराब हैं. आप प्रत्येक आर्च पर व्यक्तिगत चित्रण और विषय देखेंगे. यद्यपि पूरी इमारत को पीले बलुआ पत्थर से बनाया गया है, पटवा जी की हवेली का मुख्य द्वार भूरे रंग में है.
शाम चार बजे...
अगले सात दिनों के कार्यक्रम की एक विस्तृत ब्रीफिंग के लिए सभी सेना द्वारा बनाये गए एक साउंड प्रूफ खुले बैंकर में उतरते हैं, यह एक बड़ा खाली स्विमिंग पूल की तरह बनी सरंचना है ,जिसे सेना अपने गुप्त मंत्रणा के लिए उपयोग करते है. यहाँ से आवाज बाहर नहीं आती. YHAI के सभी ट्रेकिंग प्रोग्राम में नियमानुसार यह ब्रीफिंग पैतालीस मिनिट से एक घंटे की हो सकती है.
हर थोड़ी देर में एक जेट या युद्धक विमान कान फोड़ देने वाली आवाज के साथ आकाश का सीना चीरते हुए गुज़रता है, जैसे अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा हो कि इस वक्त बस उसके सिवा किसी और चीज़ का कोई आस्तित्व मायने नहीं रखता. पकिस्तान बॉर्डर पास ही में है, ये दुश्मन को एक चेतावनी भी है कि हम युद्ध के लिए सदा तैयार ही नहीं रहते, बल्कि उतावले भी रहते है, यदि दुश्मन चाहे तो.
31 दिसम्बर सुबह दस बजे,खरारा कैम्प
ब्रेकफास्ट हो चूका है, एक बस सभी ट्रेकेर्स को शहर के बाहर लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर छोड़ने के लिए तैयार है. खरारा कैम्प के लिये पहले दिन की ट्रैकिंग वही से प्रारम्भ होगी .
पूर्व निर्धारित स्थान से आगे जाने की इजाजत ड्राइव्हर को नहीं है, अब यहाँ से खरारा कैम्प तीन घंटो की दूरी पर है. इस तरह पहला ट्रेक प्रारम्भ होता हैं, गाइड ने बताया सिर्फ दिसम्बर के ठंडे मौसम में ही राजस्थान की धरती पथिको को अपने ऊपर से गुजरने देती है. गर्मी में यहाँ का तापमान 45 -26 डिग्री सेल्सियस हो जाता है जो देश के दूसरे शहरों जितना ही है मगर रेतीली जमीन उससे कही ज्यादा गर्म हो जाती है. उपर से सपाट मैदान में चलने वाली धूल भरी आंधी राहगीरों पर कहर ढाने में कोई कसर नहीं छोड़ती हैं. तब इस रास्ते बहोत कम लोग गुज़रते हैं. मगर अभी दिसम्बर में तापमान 26 -10 डिग्री सेल्सियस है.
अगले सात दिनों में यह कारवां किसी भी किले या महल से नहीं गुजरेगा. उसके लिए YHAI के दूसरे ट्रेक है. फ़िलहाल यह ट्रेक विशुद्ध रूप से प्रकृति को समर्पित है, और यहाँ प्रकृति से तात्पर्य मीलो तक फैले मैदान और सिर्फ मैदान से है. वो लोग जो सामान्य जगहों से आते है उनके लिए बदले हुए परिवेश जिज्ञासा का विषय हो जाते है. ये मानव की सामान्य प्रकृति का द्योतक हैं. तो यहां भी जानने को बहुत कुछ है और इसके लिए फ़िलहाल सात दिन पर्याप्त है.
पास वाले मकान में जो अगले एक माह के लिये YHAI का किचन होगा, अब कुछ हलचल होने लगी है, खानसामा चाय तैयार करने में लगा है, उसके साथी रात के भोजन की तैयारी कर रहे है,जो शाम ढलने के पहले यानी सात के आसपास संपन्न होगा. हम सुबह ब्रेकफास्ट के पश्चात और लंच बॉक्स ले कर निकले थे. जिसे एक ऊँचे टीले पर बैठ कर खा लिया गया था.
रात के भोजन मैं केर सांगरी की भाजी, रोटी, दाल, चावल, खीर, तली हुई हरी मिर्च, और सलाद हैं, इन सबके साथ शुद्ध घी की खुशबू भूख बढ़ा देती है. अभी अभी ढला हुआ सूरज अब भी अपनी लालिमा आकाश में बिखेर रहा है, यह अनुभव करने की चीज़ है.
रात के आठ बजे है, जैसलमेर के एक प्रसिद्ध हास्य कवि हैं , जिनकी कविता मैं टीवी पर भी सुन चुका हूँ. हमारे कैम्प लीडर के दोस्त हैं और यह हमारा सौभाग्य है कि वे उनके आग्रह पर आये है. वे कुछ हास्य कविताएं सुनाते है और मोबाईल और लेपटॉप में डूबे रहने वाले स्टूडेंट्स और कंपनी में काम करने वाले लोग हँस हँस के लोटपोट हो जाते है. अचानक उनका वो देसीपन जाग उठता है, जो पराये देशो से आये विदेशी कंपनी की संगत में ज़रा दब चुका था जहाँ वे काम किया करते है, इस आबोहवा, इस मिट्टी ने उन्हें कुछ इस तरह गले से लगाया है कि वे भूल चुके है कि वे वातानुकूलित व्यवस्था में काम करने वाले निहायत सफाई पसंद और हर काम में मीन मेख निकलने वाले व्यक्तित्व हैं. मगर अभी भी उनमे से कुछ इस बदले वातावरण से एक सार नहीं हो पाए है, मगर वो बने तो इसी मिटटी से हैं, उनका पोर पोर, रोम रोम इसमें भीगा है और बस बहोत जल्द वे इसमें रच बस जायेंगे...
रात के नौं तीस हो चुके है, एक सन्नाटा पसरा है. टेंट से टकराने वाली हवाएं अपनी मौजूदगी का एहसास करवा रही है. सब भले ही थोड़ी देर में नींद के आगोश में चले जायेंगे, मगर प्रकृति बिना आराम किये अपना काम करती रहेंगी...
1 जनवरी सैम सैंड ड्यून्स...
सुबह के छह बज चुके है. कैम्प लीडर बड़े मिलनसार और हँसमुख व्यक्ति हैं. वे वॉलेंटेरियल सेवाएं दे रहे है. अभी थोड़ी देर पश्चात सैम सैंड ड्यून्स के लिए निकलना है दरअसल फिल्मो में देखे जाने वाले सैंड ड्यून्स हर जगह नहीं होते यह बीच बीच में कहीं कहीं पाए जाते हैं, चूँकि ये पर्यटकों के रूचि के केंद्र होते है अतः सरकार यहाँ साफसफाई विशेष ध्यान देती हैं. मैदानों में मिटटी होती है, मगर रेत का अंश भी होता हैं, सो उपजाऊ नहीं होती, झाड़िया बहुतायत में पाई जाती है केर सांगरी के चार फ़ीट ऊँचे पेड़ भी पाए जाते है जिसकी फलियां खाने योग्य होती हैं.
ब्रेकफास्ट के पश्चात, एवं पैक्ड लंच ले कर YHAI का यह कारवाँ सैम सैंड ड्यून्स की और प्रस्थान करता हैं. गाइड के साथ उसका ऊँट भी हैं. सुबह के नौ बजे है, तीन बजे अगले कैम्प तक पहुंचेंगे. आज रास्ता ज़रा लम्बा है.
कुलधरा शापित गाँव की दास्तान...
(कुलधरा गाँव के कुछ भग्नावेश.नीचे पिक्स देखे )
कुलधरा की कहानी के बगैर यहाँ से आगे बढ़ना ठीक नहीं होगा. अपने आत्सम्मान के लिए राजपूतों द्वारा दी गई कुर्बानिया तो सब जानते हैं, मगर इसमें कुलधरा के पालीवाल ब्राह्मण भी पीछे नहीं रहें,उन्होंने जो कुर्बानी दी शायद ही किसी ने अब तक दी होगी. आखिर इतिहास रच देने वाले इस वाकये को जानना ज़रूरी है.
जैसलमेर नगर से 18 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक शापित और रहस्यमयी गाँव कुलधरा स्थित है, जिसे आत्माओं का गाँव (Haunted Village) भी कहा जाता है. अभी भी गाँव के मकानों के भग्नावशेष चमक दमक से भरे अपने वक्त की दास्तान सुनाते है और किस तरह पालीवाल ब्राह्मणों ने अपनी मेहनत और सूझ बूझ से 85 गाँव बसाये थे. यह माता-रानी के मन्दिर को केन्द्र में रखकर उसके चारों और फैला हुआ था.
कुलधरा गाँव – ब्राह्मणों के क्रोध का प्रतीक हैं, जहाँ आज भी लोग जाने से डरते हैं जाते भी है तो शाम के पश्चात वहां कोई नहीं ठहरता . कुलधरा गाँव आज से 500 साल पहले 600 घरो और 85 गाँवों का पालीवाल ब्रह्मिनो का ऐसा साम्राज्य था जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है, रेगिस्तान के बंजर धरती में जहाँ पानी नहीं मिलता वहाँ पालीवाल ब्रह्मिनो ने ऐसा चमत्कार किया जो इंसानी दिमाग से बहुत परे थी, उन्होंने जमीन पर उपलब्ध पानी का प्रयोग नहीं किया, न बारिश के पानी को संग्रहित किया बल्कि रेगिस्तान के मिटटी में मौजूद जिप्सम की जमीन खोजी और अपना गाँव जिप्सम की सतह के ऊपर बनाया, ताकि बारिश का पानी जमीन सोखे नहीं, वे अपने खेतो में गेहू ज्वार और बाजरा उगाते थे उनके पास प्रचुर मात्रा में सोना चांदी और रूपया था और किसी बात की कमी न थीं. गाँव इस तरह बसाया कि दूर से अगर दुश्मन आये तो उसकी आवाज उससे 4 गुना पहले गाँव के भीतर आ जाती थी. हर घर के बीच में आवाज का ऐसा मेल था जेसे आज के समय में टेलीफोन होते हैं.जैसलमेर के क्रूर व अत्याचारी दीवान और राज्य मंत्री सालिम सिंह को ये बात हजम नहीं हुई कि ब्राह्मण इतने आधुनिक तरीके से खेती करके अपना जीवन यापन कर सकते हैं, तब खेती पर कर लगा दिया गया. पालीवाल ब्रह्मिनो ने कर देने से मना कर दिया, सलीम सिंह ने गाँव के मुखिया से कहाँ कहा, या तो वह कर दे या अपनी बेटी दीवान के हवाले कर दे. ब्रह्मिनो को अपने आत्मसम्मान से समझौता बिलकुल बर्दास्त नहीं था. 85 गाँवों की एक महा पंचायत बैठी उन्होंने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया कि, बरसो की मेहनत से बसाये अपने गाँव को वे एक ही रात मैं खाली करके चले जायेंगे.
मगर इसके विपरीत उनके गांव छोड़ने का एक कारण यह भी प्रचलित है कि, लूटपाट से त्रस्त पालीवाल जैसलमेर राज्य में असुरक्षित महसूस करने लगे. काठौड़ी गांव में पालीवालों की 84 गांव की सभा में यह निश्चय किया गया कि हम रक्षाबंधन के दिन जैसलमेर स्टेट छोड़कर चले जाएंगे और श्रावण पूर्णिमा 1885 संवत् में एक ही रात में अपने अपने गांवों को छोड़कर चले गए.
रातों रात 85 गाँव के ब्राह्मण कहाँ गए ? केसे गए ? और कब गए ? इस चीज का पता आज तक नहीं लगा. पर जाते जाते पालीवाल ब्राह्मण शाप दे गए कि ये कुलधरा हमेशा वीरान रहेगा इस जमीन पे कोई फिर से नहीं बस पायेगा,
आज भी कुलधरा का तापमान जैसलमेर और आसपास से कुलधरा गाव आते 4 डिग्री अधिक होता हैं .वैज्ञानिको की टीम जब पहुची तो उनके मशीनो में आवाज और तरगो की रिकॉर्डिंग हुई जिससे ये पता चलता हैँ की कुलधरा में आज भी कुछ शक्तिया मोजूद हैं जो इस गाँव में किसी को रहने नहीं देती. आज भी कुलधरा गाँव की सीमा में आते ही मोबाइल नेटवर्क और रेडियो काम करना बंद कर देते हैं पर जेसे ही गाँव की सीमा से बाहर आते हैं मोबाइल और रेडियो शुरू हो जाते हैं.यह भी भौगोलिक कारणों से संभव हो सकता है.
जैसलमेर जब भी जाना हो तो कुलधरा जरुर जाए. ब्राह्मण के क्रोध और आत्मसम्मान का प्रतीक है, कुलधरा. अभी राजस्थान सरकार ने इसे पर्यटन स्थल का दर्जा दे दिया है, इस कारण अब देश एवं विदेश से पर्यटक आते रहते है.
कारवाँ आगे चलता रहता हैं, ये एक और सैंड ड्यून हैं समूह के कुछ लोग अपने को रोक नहीं पाते. उनके भीतर का बालक मचल उठता हैं. वे रेत में ऊंची ऊँची छलांगे मार रहे हैं. कुछ बच्चे भी है. मैं कुछ पिक्स लेने की कोशिश कर रहा हूँ. बड़ी मुश्किल से कुछ यादगार पिक्स आ पाती है...
सैम सैंड ड्यून्स आने ही वाला है, एक मुख्य सड़क के किनारे बहोत से टेंट लगे है, भारी संख्या में पर्यटकों का जमावड़ा है, ये सभी अलग अलग जगह स्थित फाइव स्टार टेंट में रह रहे हैं. विदेशी पर्यटक भी काफी तादाद में आये हुए है .कल शायद बड़ा जलसा होगा. यहाँ से 150 किलोमीटर पर पकिस्तान की बॉर्डर प्रारंभ होती है.
सैंड ड्यून्स अद्भुत है, पर गहमागहमी है, कई फिल्मो की शूटिंग हो चुकी है. अभी सूर्यास्त होने में दो घंटे हैं मगर लोग अभी से अपना स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं. ऊँट और ऊँट गाड़ियों की भरमार है, मगर आश्चर्य की बात है, गुटके के खाली पाउच नहीं दिखाई देते.
सूर्य दिन भर की थकान मिटाने के लिए कुछ देर विश्राम करना चाहता हैं. धीरे धीरे आकाश से धरती की और अपना सफर तय करता जा रहा हैं. अब अब अपनी लालिमा आकाश में अंतिम बार फैला कर विदा लेता है.
2 जनवरी सुदासरी सैंड ड्यून्स / रिज़र्व फारेस्ट
अगले दिन सुबह मुख्य सड़क पर काफी सारे ऊँट अपने मालिकों के साथ खड़े है. आज सफर सुदासरी सैंड ड्यून्स तक का हैं. ऊँट की सवारी लगभग आठ किलोमीटर तक होगी. उसके पश्चात सुदासारी कैम्प तक दस किलोमीटर तक ट्रेकिंग. पहले एक ऊँट नीचे बैठता है फिर उस पर दो व्यक्ति बैठ जाते हैं बड़ी ही अजीब स्थिति से वह खड़ा होता हैं और चल पड़ता हैं. यह आनंददायक हैं. ऊँट की ऊँचाई नज़ारो को देखना आसान बना देती है.
सुदासरी डेजर्ट नेशनल पार्क 3262 वर्ग किलोमीटर में फैला है. विभिन्न मौसम में बहार से आने वाले अतिथि पक्षियों में और जो यहाँ रहते है उनमे प्रमुख द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड पक्षी को बचाने का प्रमुखतः उपाय किया जा रहा है, वैसे वे यहाँ बहुतायत से पाए जाते है. अन्य पक्षियों में चील, फाल्कन, बजार्ड हैं. इसके अलावा लोमड़ी, खरगोश, भेड़िया आदि पाए जाते है. आम आदमी को यहां जाने की इज़ाज़त नहीं है, मगर YHAI के लिए सरकार ने स्पेशल परमीशन दे दी है. डेजर्ट नेशनल पार्क के पास जीवाश्म का भी अच्छा कलेक्शन है जो अठारह करोड़ वर्ष पुराने है. छह करोड़ वर्ष पूर्व के डायनोसोर के जीवाश्म भी यहां पाए गए हैं. हम आज की रात मुख्य पार्क के भीतर गुजारेंगे.
पार्क में घूमने का बेहतर समय नवम्बर से जनवरी के मध्य में है यह अच्छी बात हैं कि हम दिसम्बर के इस वक्त यहां है. सुदासरी के पश्चात अगला एवं अंतिम पड़ाव बारना है.
जहाँ मस्ती हो जहाँ घूमने की बात हो वहाँ गुजरातियों की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता हर माहौल का पूरा लुत्फ उठाना वे अच्छी तरह जानते है. अमूनन हर रात गरबा की धूम है. इससे कड़क ठण्ड में भी गर्मी आ जाती है. इस ट्रेक में भी गुजराती बहोत है , वैसे भी उनका राज्य पड़ोस में हैं.
आज के डिनर में दाल बाटी और चूरमा हैं, शुद्ध घी के साथ...
रात है, ठण्ड है, नींद है, और थकान है... अभी रात के सिर्फ आठ बजे है...और बस सन्नाटा पसरा है. कभी कभी सियार और जंगली जानवरो की आवाजे आती रहती हैं. .....
3 जनवरी बारना...
सुबह के छह बजे चाय,
सात बजे ब्रेकफास्ट,
और आठ बजे पैक्ड लंच ले कर अगले और आखिरी कैम्प ( बारना ) के लिए प्रस्थान,
हर सुबह निकलने के लिए यह YAAHI का सम्पूर्ण देश के लिए निर्धारित शेड्यूल है.
बारना पहुंचते पहुंचते दोपहर के लगभग दो बज जाते हैं. बारना कैम्प के समीप ही एक गाँव हैं, यहां रहने वाले विशुद्ध राजस्थानी जीवन जीते हैं. अब उनकी जीवन शैली से परिचित होने उस और चल पड़ते हैं. उनके मकान आपस में सटे है. कपड़ों में राजस्थानी रंग हैं, कुछ देर घूमने के पश्चात अपने साथ लाया हुआ खाने का सामान और कुछ टाफियां वहां बच्चो में वितरित कर देते है.
उसने बताया ,
"वो सुबह चार बजे उठा था और अपनी भेड़े लेकर निकल गया."
इतना कह कर उसने ठंडे पानी से मुँह धो कर अपना ग्लास चाय से लगभग पूरा ही भर लिया.
मैंने पूछा "कहाँ है भेड़े तुम्हारी ?
" यहाँ से 10 किलो मीटर.." उसने गरम चाय सुड़कते हुए जवाब दिया.
अब तक मैंने भी अपना कप चाय से भर लिया था.
ठंड से मेरे हाथ जम न जाए इसलिए मैंने हथेलियो के बीच कप को छुपा लिया .
"वो कहीं नहीं जाएँगी....?" मैंने पूछा
नहीं, वो कहीं नहीं जाएँगी... उसने जवाब दिया
"वो सब साथ रहती हैं." उसने आगे कहा
"रोज आते हो इतनी दूर…….? " मैंने सवाल किया,
“…हाँ, पिछले आठ दस दिनों से ,जबसे आपका कैम्प लगा है तबसे. आपका खानसामा मेरा दोस्त है ."
"तो क्यों आते हो इतनी दूर "? मैंने पूछा,
"पीने को पानी और गरम चाय मिल जाती है इसलिए " उसने जवाब दिया .
मैंने सोचा, "एक कप चाय और पीने के लिए पानी की कीमत इस चरवाहे से बेहतर कौन जान सकता है ?"
इस आखिरी कैम्प के पश्चात अब अपना सामान बांधने का और राजस्थान की इस धरती को अलविदा करने का वक्त आ चुका हैं . बस आ चुकी है. यह बस बीस किलोमीटर दूर बेस कैम्प तक ट्रेकर्स को छोड़ देगी. वहां से वे ट्रेन बस या फ्लाइट से अपने अपने शहरों को लौट जाएँगे. सामान लोड कर लिया गया है. सवार होते ही बस चल पड़ती है. बस में लगा सीडी प्लैयर को D.J. बना लिया जाता हैं और लोग थिरकने लगते है. इस स्वर्ण अरण्य में बिताए पिछले कुछ दिनों में जो आनंद दिलो में भर आया हैं , अब वो छलकने लगा हैं. यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक बेस कैम्प नहीं आ जाता. मुझे कल ट्रेन से निकलना है अभी दिन के ग्यारह बजे है.
जैसलमेर में सालिम सिंह एवं नाथमल जी की हवेली भी देखी जा सकती है.
जिस तरह एक माँ को अपने सभी बच्चे एक समान प्यारे होते हैं ठीक वैसे ही देश का हर भाग समान रूप से सम्मान का अधिकारी होना चाहिए. अपने व्यस्त समय से थोड़ा समय निकाल कर उन सुदूर जगहों पर क्यों नहीं जाया जाए , जो स्थान वक्त के थपेड़े खा कर भी सर उठाये शान से जी रहे है..
एक अवसर मिला अपने देश के उस सुदूर भाग तक जाने का जो अब तक अनजाना था. हम उस धरती से मिल आये जो हमारी अपनी हैं, हम उसे प्रणाम कर आये, हमने कुछ दिन बिता कर उसे एहसास दिलाया हम उसके साथ हैं और सदा साथ रहेंगे. हिंदुस्तान की इस धरती के लिए वीरो ने अपने प्राणो की आहूति दी हैं. सीमा तक जा कर यह एहसास हुआ कि देश का विस्तार कहाँ तक हैं ? ये धरती हमारी मातृ भूमि है... और हमारी रहेगी....
पुनश्च :
सरल भाषा में लिखते हुए मैं विषय और हिन्दी दोनों को आम जन तक पहुँचाने का एवं हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का बहोत छोटा प्रयास करने की बहोत छोटी सी कोशिश भर कर रहा हूँ....
पर्यटन को कहानी एवं काव्यात्मक रूप से लिख कर रूचिकर बनाने का प्रयास किया गया हैं.
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फिलहल के लिए इतना ही....बहोत जल्द मिलते हैं फिर एक नई जगह के साथ, नए विचारो के साथ, तब तक खुश रहिये और पढ़ते रहिये .
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