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रविवार, 30 जून 2019

पांडिचेरी.....एक सन्देश और कुछ पर्यटन....

पांडिचेरी…….
एक शहर...,
एक सन्देश और कुछ पर्यटन....,


बैंगलौर से रात नौ बजे या शायद दस बजे एक वातानुकूलित बस में प्रवेश करने के पश्चात दूरी का भान नहीं रह जाता न समय का. सुबह जब आँख खुलती है, तो मैं अपने आप को पांडिचेरी में पाता हूँ.





 हर शहर की एक खास बात होती है.  कभी कभी यह “ख़ास बात” दिखती भी नहीं,  इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है....पुदुच्चेरी  तो बस एक आर्ट है. यदि महसूस किया जाए तो यह बहुत कुछ कहता है. जीने की जद्दोजहद से दूर आत्मीय शान्ति अपने आप मे समेटे यह आपको भी आनंद से  भर देता है. कुछ ऐसी बाते है जिससे महर्षि अरविंद का यह शहर बाकी शहरों से अपनी अलग एक शक्शियत बनाए रखने में सफल रहा एवं बड़ी विनम्रता से अपनी कामयाबी के साथ जी लेता है.यदि आप इसे समझना चाहते है तो फिर आपको इससे जुड़ना होगा.






        पुदुच्चेरी एक केंद्र शासित प्रदेश है. 20 सितंबर 2006 को इसका नाम पॉन्डिचेरी से पुदुच्चेरी में बदल दिया गया. भारतीय, दक्षिण भारतीय, फ्रेन्च और अंग्रेजी संस्कृति का एक सुरूचिपूर्ण मिश्रण एक जगह पर देखना हो तो पॉन्डिचेरी से बढ़ कर दूसरा स्थान संम्पूर्ण भारत में नहीं हैं.  विशाल ह्रदय वाले भारतीयों ने सभी संस्कृति को संजो संम्हाल कर रखा हैं. मुख्य बाजार आम भारतीय बाजारो जैसे  ही हैं , मगर “ फ्रेन्च कालोनी / व्हाइट टाउन”  मे प्रवेश करते ही वातावरण बदल जाता हैं. यकायक ऐसा लगता है. जैसे किसी विदेशी शहर मे कदम रख दिए हो. माहौल बदलने से मन उत्सुकता से भर जाता हैं. कुछ नया जानने की स्वाभाविक प्रवृत्ति जाग उठती हैं. रही सही कसर यहाँ वहाँ घूमते फ्रान्सिस पूरी कर देते हैं. उनका रहन सहन, खाना कपड़े, भाषा, फ्रेन्च रेस्तोरा, मकानो की डिजाइन, नाट्य शाला, कुछ भी तो नहीं मिलता हमसे. सिवाऐ एक बात के और वो है, दिल.




 भारत पर अपने अधिपत्य की लालसा लिये आऐ अंग्रेजो के साथ साथ फ्रान्सिसी भी भारत आऐ. अंग्रेज इन्हे अपना मानते थे, सो उन्होंने कुछ राज्य दे दिये. इनमे पांडिचेरी भी एक था. इन लोगों को भारत इतना रास आया कि भारत के आजाद होने के बाद भी उनमें से कुछ अपने देश जाने के बजाऐ यहीं बस गए और खान पान सर्वथा अलग होने के बाद भी हममें से एक हो गऐ. यहाँ वे समय बिताने को नहीं रहते. वे सांस्कृतिक है. अपने धर्म को बड़ी सहजता से जीते है. उन्होंने  भारतीय धड़कन, साहित्य और धर्म से तादात्म्य बिठा लिया है.

                              
फ्रेन्च कालोनी या ह्वाईट टाउन से लगी मुख्य सड़क और ठीक उस पार गरजता हुआ समंदर. बीच पर फ्रान्सिसी शैली में बने रेस्तोरा जैसे कि "ले केफे" जिसका मेन्यू न पढ़ा जा सकता है और न ही समझ मे आता है. मगर हम चटोरे भारतीयों को बस स्वाद से मतलब है. वो चाईनीज नूडल्स हो, इटैलियन पीजा हो, या फिर अमेरिकन बर्गर,बात खाने की हो तो हम सब चट कर जाते हैं. मैने तो गोवा में सफेद छोटी छोटी मछलियों से बनी ‘प्रान बिरयानी’ भी खाई थीं.. जिसे मेरी शुद्ध शाकाहारी पत्नी ने कुछ खास पसंद नहीं किया मगर मुझे तो वह भी अच्छी लगी. कुछ पनीर जैसा स्वाद था. कभी अपने शहर वापस लौटने के पश्चात लोग पूछते हैं,
    “हममम…...गोआ गए थे...... सी बीच पर मिलने वाली प्रान बिरयानी तो खाई होगी..... सुना है, बहोत अच्छी मिलती है...?”
           और इतना कह कर मौन हो जाते हैं, एक प्रश्न चिन्ह छोड़... और तब मेरे पास उनके मौन का जवाब होता है.

मगर लाईन मे लग कर वक्त बरबाद करने से बेहतर मैने ठोंगे मे गरमागरम मूंगफली के दाने ले कर समंदर को निहारना ही बेहतर समझा,  मगर इस फ्रेंच रेस्तोरां से कोई व्यंजन चखे बिना यू ही लौट जाना मुझे थोड़ा नागवार गुज़रा और पत्नीजी को भी मेरा यह आइडिया ज़रा भी  पसंद नहीं आया.  तो आम चटोरे भारतीय की तरह मैं भी 'ले केफे' की भीड़ भरी लाईन में लग गया. मैने देखा वो रेस्टोरेट वाली लड़की के बालो का रंग गहरा सुनहरा था और चेहरे का रंग तबंई. वह धीरे धीरे बातें कर रहीं थीं. फ्रेंच थीं और अंग्रेजी बोल रहीं थीं. मुझे उसकी अंग्रेजी समझ नहीं आ रहीं थीं और उसे मेरी हिन्दी. उसने मुझे मेन्यू लाख समझाया और मैने भी समझने की लाख कोशिश की मगर न वो मुझे कुछ समझा सकी न मै समझ सका. मेरे पीछे खड़े लोग चिल्लाने लगे थे. सो मैने फटाफट अपनी समझ से एक डिश का आर्डर कर दिया. बस उस लड़की से तीन बार पूछा,

"नो बीफ ना...?"  नो बीफ ना.... ?

शुक्र है वो समझ गई. उसने न में सर हिलाया. मुझे अपने ही देश में खाने के लिए इतनी जहमत कभी नहीं करनी पड़ी. मुझे इसके छह सौ रूपऐ चुकाने पड़े. वो डिश अच्छी थीं. मगर यहाँ मैं स्पष्ट कर दू, बीच पर बार बार पैरो को छूकर वापस चली जाती  लहरों को देखते हुए देसी स्टाइल में ठोंगे में मूंगफली के दानो के रस्वादन का मेरा सपना ‘ले कैफ़े’ वाली लड़की के सुनहरे बालो में उलझ कर बस सपना ही रह गया…..कोई बात नहीं अगली बार फिर कभी सही...
                               

प्रत्येक रविवार रात तकरीबन आठ बजे ‘पोलिस ब्रास बैंड’ गाँधी स्टेचू के समीप एक घंटे का एक रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत करता हैं, जो देखने सुनने योग्य हैं. संयोग से उस दिन रविवार ही था. भारी भीड़ थीं. चहल पहल थी. ठंडी ठंडी हवाऐ चल रहीं थीं और वातावरण खुशगंवार था…शाम सात बजे व्हाइट  टाउन से सटे मार्ग को बंद कर दिया जाता हैं. चूँकि  इस मार्ग के दूसरी ओर  समुद्र हैं, तो रात को गहमागहमी बढ़ जाती हैं. बस एक बेफ़िकराना सा माहौल होता हैं….सी फेसिंग पर शानदार पाँच सितारा होटले हैं, ला पोन्डा या दी प्रोमेनेड, ला विला या फिर ले ड्यूप्लेक्स जो कभी मेयर का घर हुआ करता था, अब होटल मे तब्दील कर दिया गया है.

श्री अरविन्द 15  अगस्त 1872  को कोलकाता में जन्मे और इंग्लैण्ड से शिक्षा प्राप्त की. उनके द्वारा श्री अरविन्द आश्रम की स्थापना 24 नवम्बर 1926 को की गयी. उस समय आश्रम में कोई 20-25 साधक ही थे. उसी वर्ष के दिसम्बर माह में श्री अरविन्द ने निश्चय किया कि वे जनता से दूर रह कर अपनी साधना पर ध्यान देंगे. उन्होने अपने सहकर्मी मदर मीरा अलफांसे को आश्रम की संपूर्ण जिम्मेदारी सौप दी. मीरा अलफांसे का जन्म पेरिस मे हुआ था और 1910 में वह महर्षि के संम्पर्क मे आई. शायद इसलिए भी शहर के लोग फ्रेन्च लोगों के साथ जुड़ाव महसूस करते हैं ...

जब हमने उनके व्हाइट  टाउन स्थित  ‘अरबिन्दो आश्रम’ में प्रवेश किया तो वातावरण अगरबत्ती की खुशबू और ऊर्जा से भरा था. जिसे महसूस किया जा सकता था. वहाँ यत्र तत्र सर्वत्र सन्यासी बैठे हुए थे. बिल्कुल बुत की तरह मौन. कोई बातचीत नहीं, मगर वे ध्यानस्त भी नहीं थे. उनकी आँखे खुली थी. जैसे चौकस हो या चौकसी पर हो... मैंने  कुछ पूछने की कोशिश की तो उनमें से एक ने शान्त रहने को कहा. एक ने मुस्कुरा कर मेरी और देखा जैसे कह रहे हो, "यही तो काम है उनका शांति बनाये रखना.." मैंने सहमति की मुद्रा में चुपचाप सर हिला दिया ….

एक सीमेंट का चबूतरा बना हुआ था. लगभग छह फ़ीट गुना तीन फ़ीट. जो ताजे फूलो से सजा था. उसकी सजावट देखते ही बनती थी . लोग उस पर मत्था  टेक रहे थे . फिर किसी से मेरी पूछने की हिम्मत न हुई शायद महर्षि की समाधि ही हो ...
( यहाँ आश्रम के समीप बने आश्रम के कमरों में आप ठहर भी सकते हैं.. पास मे भव्य मंदिर अरुल्मिगु  मनकूला वीयंगर  के दर्शन अवश्य करें.. ( चित्र देखे)
                           

 सिर्फ अपना लायसेंस दे कर, बिना किसी पूछताछ के आपको कार या फिर बाईक मिल जाती हैं. एक "किफायती पर किलोमीटर" या दिन के हिसाब से. यह जेब पर डाका तो बिल्कुल नही होता. तो दिन भर घूमने का आनंद मिलता हैं. लगता ही नहीं किसी पराऐ शहर मे हैं आप. महसूस होता हैं बिलकुल अपना ही शहर हो जैसे....

अब इस शहर से दूर चलते हैं.  ऑरोविल  की और चलते हैं,  नितांत अकेलेपन की ओर, ध्यान की ओर, अपनी खोज में…

फिर नारियल के पेड़ नजर आने लगते हैं. ये सभी बहुतायत से हैं. सभी जगह हैं. मातृमंदिर जाने वाला रास्ता अभी खाली हैं.  तभी सामने से लूना पर एक फ्रेंच कपल क्रॉस करता हैं. पीछे बैठी पत्नीजी के हाथ हिलाने पर वे भी वेव करते हैं, और  पल में यह शहर अपना हो जाता हैं .
                        
         
अभी मैने अपनी बजाज ऐवेन्जर को फुल थ्राटल दिया ही था कि आगे स्क्वेयर पर  सफेद वर्दी में यातायात को सम्हाले रखने का जिम्मा लिये पुलिस वाले को देख कर गति कम कर देता हूँ और यह जरूरी भी है, यदि मुझे पीछे जाते हुए नारियल के पेड़ के विडियो और रास्ते पर सूखी मछली और केकड़े ले कर बैठी बूढ़ी औरतों की कुछ फोटो लेनी हो तो...मगर फोटो लेने के लिए वे अजीब सी शर्त रख देती हैं, मछली खरीदने के शर्त. मैं उनसे कुछ सूखी मछली खरीद ले लेता हूँ, उनका मन रखने के लिये. एक मुस्कान उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर आ जाती हैं. मन को अच्छा लगता हैं. मै उसका एक फोटो ले  लेता हूँ. हम चलते जा रहें हैं.
( यहीं से एक रास्ता चैन्नई जाता हैं समंदर के किनारे किनारे यह रास्ता देश के दस सर्वश्रेष्ठ रास्तों में से एक हैं. )
                            
 

                            
         ऑरोविल आ चुका है..
मदर मीरा अलफांसे द्वारा 1968 में विलुपुरम जिले में ऑरोविल नाम से एक प्रायोगिक शहर बसाया गया. जिसके आर्किटेक्ट रोजर एंगर थे. यहाँ जितने भी आलय है, स्वयं एक आर्ट है. मातृमंदिर यहाँ से लगभग 1.5 किलोमीटर पर है, वहाँ तक हमें पैदल ही जाना होगा. मुझे अपनी बाईक स्टैंड पर लगानी होगी. यह पहला पड़ाव है. ऑरोविल में कुछ मान्यूमेन्टस हैं. एक फ्रेन्च रेस्तोरा हैं. एक शानदार शो रूम है, बुटिक है, जहाँ कुछ अजीबोगरीब कपड़े, चाय, काफी, गिफ्ट का सामान, आर्टीफीशियल जूलरी, विदेशी सोप्स, परफ्यूम और इसी तरह की वैगरह वैगरह वैगरह....चीजें मिलती हैं. एक आलय में एक बड़ा सा टीवी रखा है. 15 -20  मिनिट की एक फिल्म दिखाई जाती है. जो दिन भर चलती है . बताया जाता है, ऑरोविल और मातृमंदिर का निर्माण कैसे हुआ ? कैसे बना  ? इस परिसर में  अंतहीन कल्पनाओ से उपजी कला से परिचय होता है . यह कुछ समय गुज़ारने लायक स्थान है, जहाँ सब कुछ प्रतीकात्मक है , प्रतीकात्मक है कि जिंदगी राजनीति से, मीडिया से, और धन कमाने की लालसा से बढ़कर है. इस पक्ष के उजागर होने के साथ ही जीवन के प्रति सम्मान अचानक बढ़ जाता है. यही इसका उद्देश्य भी है.
                            
                        
                             
साथ लगे कमरों मे बड़ी बड़ी पेन्टिग्स लगी हैं. यह आर्ट गैलरी है. पास में एक ध्यान कक्ष भी है. एक औरत वहाँ ध्यान करते करते जोर जोर से आगे पीछे हिलने लगती हैं,  हमे यहाँ अधिक नहीं रूकना चाहिए... मुझे याद आता है, मुझे मातृमंदिर जाना है. मै इन सब आकर्षण से निकलता हूँ. अब हम मंदिर के रास्ते पर पैदल चल रहे है. दोनों ओर पोस्टर लगे हैं. जिस पर ज्ञान की बाते लिखी है और फूलो के चित्र बने है.


                          
                              
            
इस रास्ते पर भीड़ है. मातृमंदिर नजर आने लगता है. यह किसी धर्म या वर्ग विशेष से संबंधित नहीं है. शांति के  प्रतीक मातृमंदिर का निर्माण  37 वर्षो  में हुआ. इसमें दुनिया का सबसे बड़ा वैकल्पिक रूप से परिपूर्ण ग्लास ग्लोब रखा हुआ है. भीतर ध्यान कक्ष हैं. इसे फ्रेन्च और भारतीय लोगों ने मिल कर बनाया हैं. ध्यान कक्ष के वर्णन के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं. बस यह अनूभूत करने लायक है.  एक स्वप्न सा है. कुछ ऐसी सरंचना है कि बस खो जाने को जी चाहता हैं और जैसे ही आप खो जाते हैं, ध्यान अपने आप लग जाता है.
                           
            
पास ही में ऑरोविल बीच है. समंदर पीछा नहीं छोड़ता. साथ साथ चलता है .इससे उठने वाली लहरे सारे प्रतिबन्ध तोड़ कर बार बार किनारे को आना चाहती है. नीरव अरण्य में किससे मिलने को आतुर हैं वे ? समंदर उन मनमौजी लहरों को फिर फिर अपनी और खींच लेता है, अपने नियंत्रण में रखता है, और हर बार अल्हड किशोरियों की मानिंद ये लहरे सारे प्रतिबंधों के खिलाफ बगावत कर देती हैं. किसी प्रतिबन्ध को मानना नहीं चाहतीं. मगर समुद्र के आगे उनकी एक नहीं  चलती. विशाल समुद्र अपनी हद में रहता है, और लहरों को भी अपनी हद में रखता है.
                       

          
दूसरा पूरा दिन चर्च देखने में चला जाता है. जो हर जगह है. शायद दस के आसपास होंगे.  सभी शानदार हैं, भव्य हैं, बड़ी श्रद्धा से उनका रखरखाव किया जाता रहा है. लगता हैं जैसे बस अभी अभी इनका निर्माण हुआ हो. ऑवर लेडी ऑफ़ एंजेल्स दमस  स्ट्रीट, व्हाइट टाउन में स्थित चर्च बस देखते ही बनता हैं .बेसिलिका ऑफ़ स्केयर्ड हार्ट ऑफ़ जीसस चर्च  शहर में है .
                       
           
अरुल्मिगु  मनकूला वियंगर मंदिर,  व्हाइट टाउन में है,  इस मंदिर में जिस तरह सोने का इस्तेमाल हुआ है, देख कर लगता है, जैसे भारत अभी भी सोने की चिड़िया है. इसका आर्किटेक्ट आपको ठेठ दक्षिण भारतीय संस्कृति से रूबरू करवाता है और जस का तस  सामने रख देता है. मंदिर की दीवारों छतो पर उकेरी गई कलाकृति और रंगो का समिश्रण देख कर नतमस्तक होने को जी चाहता है. इसके आलावा भी वर्णन न कर पाने जैसे मंदिर पांडिचेरी में पसरे हैं. इन सबसे हमारी संस्कृति की पहचान है.

कुछ दिन बिता कर हम पांडिचेरी से  लौट जाते हैं. मगर मन अभी भी वही रह जाता है. ऑरोविल की कॉफी में, उस मछली बेचती बुढ़िया की मुस्कान में, चर्च में प्रार्थना करते हुए अनाथ बच्चों में... उछाले मारती हुई समंदर की लहरों में….मातृमंदिर में पसरी शान्ति में……और अरुल्मिगु  मनकूला  वियंगर मंदिर के साथ...

        अगली बार चलिए फिर किसी नए सफर पर…




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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself to be the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty. - Bhagavad Gita, Chapter II, Verse 47

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कार चलाते  समय सीट बैल्ट ज़रूर बांधे....
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